बात झूठी नहीं मैं असल कहता हूँ,
मैं जुदा और से आजकल कहता हूँ।
इक दफ़ा मैंने महफ़िल में देखा उसे,
नाम जो भी रहे मैं ग़ज़ल कहता हूँ।
मीर ग़ालिब निराला को जब से पढ़ा,
झोपडी को तभी से महल कहता हूँ।
दिन गुज़ारे जो थे मैंने तेरे लिए,
ज़िंदगी के गुलों का कँवल कहता हूँ।
आप 'अविनाश' मेरी ग़ज़ल देखिये,
ख़ूब आसान मीठी सरल कहता हूँ।