भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बात यह नहीं / योसिफ़ ब्रोदस्की

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात यह नहीं है कि दिमाग फिर गया है मेरा,
बस, थका दिया है मुझे यहाँ की गर्मियों ने ।

अलमारी में ढूँढ़ने लगता हूँ कमीज़
और इसी में पूरा हो जाता है एक दिन ।
अच्छा हो कि सर्दियाँ आएँ जल्दी-से-जल्दी
बुहार कर ले जाएँ
इन शहरों और लोगों को
शुरुआत वे यहाँ की हरियाली से कर सकती हैं ।

मैं घुस जाऊँगा बिस्तर में
बिना कपड़े उतारे
पढ़ने लगूँगा किसी दूसरे की क़िताब
किसी भी जगह से
पढ़ता जाऊँगा
जब तक साल के बाक़ी दिन
अन्धे के पास से भागे कु्त्ते की तरह
पहुँच नहीं जाते निर्धारित जगह पर ।

हम स्वतन्त्र होते हैं उस क्षण
जब भूल जाते हैं
आततायी के सामने पिता का नाम,
जब शीराजा के हलवे से अधिक
मीठा लगता है अपने ही मुँह का थूक ।

भले ही हमारा दिमाग़
मोड़ा जा चुका है मेढ़े के सींगों की तरह
पर कुछ भी नहीं टपकता
हमारी नीली ऑंखों से ।