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बात / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
फूल, पत्ती, टहनियों में
बात उलझी है
हवा,
सब कुछ जानती है
भले कुछ बोले
न बोले,
धूप,
दिन के बारजे में बन्द
मुँह खोले
न खोले,
सीढ़ियों से
गिर गया है चाँद
गलियों में
रात उलझी है ।
रेत की नागिन
नदी,
सहमी हुई है,
अन्धेरे की
क्या चहल-क़दमी हुई है ?
नींद,
बाँझिन की उँगलियों में
गुलमुहर की
शाख उलझी है ।