भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बादल-गीत / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
बादलजी! बोलो, क्या तुम भी पढ़ने जाया करते हो?
या फिर केवल गड़-गड़, गड़-गड़ शेर मचाया करते हो।
सुबह-सुबह मुझको तो मेरी मम्मी रोज जगा देती।
अलसाई आँखों से मीठे सपने दूर भगा देती।
देर हुई विद्यालय में तो टीचर अलग सजा देती।
कहो, किसी से सजा कभी क्या तुम भी पाया करते हो?
सुनते हैं, तुमको ऊपर से सारी दुनिया दिखती है।
बोलो, क्या सचमुच ऊपर से प्यारी दुनिया दिखती है?
फूलों जैसी सुंदर राजकुमारी दुनिया दिखती है।
जिस पर तुम अपने आँचल की ठंडी छाया करते हो।
नीलगगन पर रहते हो तुम तो हो जाते सैलानी।
प्यासी धरती के होंठों को छूकर हो जाते पानी।
कभी-कभी तो तुम्हें देखकर होने लगती हैरानी।
इंद्रधनुष के रंग किस तरह तुम बिखराया कते हो?