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बादल लौट आ / शांति सुमन
Kavita Kosh से
दुख रही है अब नदी की देह
बादल लौट आ ।
छू लिए हैं पाँय सँझा के
सीपियों ने खोल अपने पँख
होंठ तक पहुँचे हुए अनुबन्ध के
सौंप डाले कई उजले शँख
हो गया है इन्तज़ार विदेह
बादल लौट आ ।
बह चली हैं बैंजनी नदियाँ
खोलकर कत्थई हवा के पाल
लिखे गेरू से नयन के गीत
छपे कोंपल पर सुरभि के हाल
खेल के पतले हुए हैं रेह
बादल लौट आ ।
फूलते पीले पलासों में
काँपते हैं ख़ुशबुओं के चाव
रुकी धारों में कई दिन से
हौसले से काग़ज़ों की नाव
उग रहा है मौसमी सन्देह
बादल लौट आ ।