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बादल / अलेक्सान्दर पूश्किन / हरिवंश राय बच्चन
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ओ अन्तिम बादल झंझा के, टूट चुका है जिसका बल,
धुले हुए नीले अम्बर पर घूम रहे क्यों तुम केवल,
क्यों विषाद की छाया बनकर अब भी हो तुम अड़े हुए,
क्यों दिन के ज्योतिर्मय आनन पर कलंक बन पड़े हुए ?
प्रलय मचा रक्खी थी तुमने अभी-अभी गगनांगन में,
भयप्रद विद्युत माला तुमने लिपटा रक्खी थी तन में,
दिग्दिगन्त प्रतिध्वनित वज्र का व्यग्र गान तुम गाते थे,
ग्रीष्म प्रतापित पृथ्वी तल पर झर-झर जल बरसाते थे ।
अलम् और अलविदा तुम्हें, अब नहीं तुम्हारे बल का काम,
बरस चुका जल, सरस धरातल शीतल करता है विश्राम,
और समीरण जो चलता है सहलाता तरुवर के पात,
तुम्हें उड़ाकर ले जाएगा नभ से, जो अब निर्मल-शान्त ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन