बाप की सिखावन / शिवानन्द मिश्र 'बुन्देला'
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो,
हमें चाहें फिर कछू न बिइयो,
करौ नौकरी कभउँ काऊ के-
मों कौ कौर खैंच जिन खइयो
ऐसौ कठिन समइया आय गऔ, गाँव-गाँव भुखमरई परी है
घरन-घरन में बिधी लड़ाई, भइयन में मुड़ कटई भरी है;
अपओं गाँव ह्वै गऔ दुपटया, गाँव-गाँव बढ़ गए चौपटया,
हमनें तेरी फसल काट लई, तैं खरयानन आग धरी है।
ऐसे गाँव-पुरन में जइयो, चार जनन कों टेर बुलइयो,
सुनियो बातें सबइ जनन कीं, न्याय निबल के संगै करियो।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो।
भूखे मुन्स उघारे मिलहैं, सीदे और हरारे मिलहैं,
बइयर लरका बारे मिलहैं, मुखिया कहूँ मुनारे मिलहैं;
ऐसेउ भगत तुम्हें मिल जैहें, ढेर लगा दैहैं पइसन कौ,
रुपया-पइसाबारे मिलहैं, टुपिया-कुरताबारे मिलहैं।
लला न इन्हें तनक पतयइयो, मुफत मिलै सौनों ठुड़यइयो,
टूटी खटिया फटे गदेला, लिैं तिनइँ पै तुम सो रइयो।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो।
देखो तुमनें क्वाँर-घाम जब होंय बखरनी हाँपर-पीटा,
तुम्हें पतौ है भरी बतर में बैलन कें कढ़ आओ खुसीटा,
रूखी रोटी रकत बनो, सोइ कढ़ो पसेउ, भूम कों पिया दओ,
चैत नुनाई गड़गड़ाय कें बादर डर के मारे छींटा।
सब भुगतो है, भूल न जइयो, छाई पाय कें ना बुकल्यइयों,
मिलै पसीना की तौ खइयों, मिलै न तौ सूखेइ हरयइयों।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयोेेेेेेेेेेेेेेेेेे
है सौगन्ध हमाए पाँव में लगे डूँड़ की पकी पीर की,
हर जोतें धरती सें जूझ मौं पै धूरा के अबीर की;
चकिया पीसत महतारी की ठेठन की सौगन्ध तुम्हें है,
भइयन की रूखी रोटिन की, ज्वान बहिन के फटे चीर की।
लाज पराई कों न उघरियो, बुरी गैल पै पाँव न धरियो,
नौकर-चाकर अपएँ गाँव के, नथुआ बुधुआ घाईं समझियो।
लिख-पढ़ लला कलट्टर हुइयो।