बायस्कोप / कुमार विकल
एक रोज़ मैने बचपन में ज़िद की थी
बायस्कोप देखूँगा.
माँ ने मुझको सहज भाव से फुसलाया
‘बिस्तर में, तकिये के नीचे मुँह रख
आँखें बन्द करके
चन्दा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया के बारे में सोचो,
तब जो देखोगे उसको बायस्कोप कहते हैं.’
मैं अबोध था
समझा यही बायस्कोप है.
और रात सोने से पहले
बिस्तर में तकिये के नीचे मुँह रख
आँखें बन्द करके मैंने
चंदा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया के बारे में सोचा.
तब मैंने देखे—
बादल भैया के घोड़े
आइसक्रीम खाते हुए परियों के बच्चे
चाकलेट और टाफ़ी के डिब्बों से भरा पड़ा बौनों का देश.
मेरा बायस्कोप कितना अच्छा था
रोज़ रात सोने से पहले देखा करता.
तब बचपन था,
किन्तु आज जब बचपन अँधेरे कमरे में खोई सूई के समान है
अक्सर अधसोई रातों को
बिस्तर में अर्थहीन सोचा करता हूँ.
लेकिन अब—
चंदा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया
और बादल भैया के घोड़े नज़र नहीं आते.
अब तो घर के ईंधन,
दफ़्तर की फ़ाइलों के नीचे
दबे पड़े
कटे हुए पंख नज़र आते हैं
जो पीड़ा देते हैं,
पलकें गीली कर जाते हैं,
अधसोई रातें इसी सोच में कट जाती हैं—
मैंने बचपन में ज़िद क्यों की थी
माँ ने क्यों मुझको झूठा बायस्कोप देखना सिखलाया था ?