बारहपदी / रमैणी / कबीर
पहली मन में सुमिरौ सोई, ता सम तुलि अवर नहीं कोई॥
कोई न पूजै बाँसूँ प्रांनां, आदि अंति वो किनहूँ न जाँनाँ॥
रूप सरूप न आवै बोला, हरू गरू कछू जाइ न तोला॥
भूख न त्रिषां धूप नहीं छांही, सुख दुख रहित रहै सब मांही॥
अविगत अपरंपार ब्रह्म, ग्याँन रूप सब ठाँम॥॥
बहु बिचारि करि देखिया, कोई न सारिख राँम॥
जो त्रिभुवन पति ओहै ऐसा, ताका रूप कहो धै कैसा॥
सेवग जन सेवा कै तांई, बहुत भाँति करि सेवि गुसाई॥
तैसी सेवा चाहौ लाई, जा सेवा बिन रह्या न जाई॥
सेव करंताँ जो दुख भाई, सो दुख सुख बरि गिनहु सवाई॥
सेव करंताँ सो सुख पावा, तिन्य सुख दुख दोऊ बिसरावा॥
सेवक सेव भुलानियाँ, पंथ कुपंथ न जान।
सेवे सो सेवा करै, जिहि सेवा भल माँन॥
जिहि जग की तस की तस के ही, आपै आप आथिहै एही॥
कोई न लखई वाका भेऊ, भेऊ होई तो पावै भेऊ॥
बावैं न दांहिनै आगै न पीछू, अरध उरध रूप नहीं कीछू॥
माय न बाप आव नहीं जावा, नाँ बहु जण्याँ न को वहि जावा॥
वो है तैसा वोही जानै, ओही आहि आहि नहीं आँनै॥
नैनाँ बैंन अगोचरीं, श्रवनाँ करनी सार।
बोलन कै सुख कारनै, कहिये सिरजनहार॥
सिरजनहार नाँउ धूँ तेरा, भौसागर तिरिबै कूँ भेरा॥
जे यहु मेरा राम न करता, तौ आपै आप आवंटि जग मरता॥
राम गुसाई मिहर जु कीन्हाँ, भेरा साजि संत कौ दीन्हाँ॥
दुख खंडणाँ मही मंडणा, भगति मुकुति बिश्रांम॥
विधि करि भेरा साजिया, धर्या राम का नाम॥
जिनि यह भेरा दिढ़ करि गहिया, गये पार तिन्हौ सुख लहिया॥
दुमनाँ ह्नै जिनि चित्त डुलावा, करि छिटके थैं थाह न पावा॥
इक डूबे अरु रहे उबारा, ते जगि जरे न राखणहारा॥
राखन की कछु जुगति न कीन्हीं, राखणहार न पाया चीन्हीं॥
जिनि चिन्हा ते निरमल अंगा, जे अचीन्ह ते भये पतंगा॥
राम नाम ल्यौ लाइ करि, चित चेतन ह्नै जागि॥
कहै कबीर ते ऊबरे, जे रहे राम ल्यौ लागि॥
अरचिंत अविगत है निरधारा, जांष्यां जाइ न वार न पारा॥
लोक बेद थै अछै नियारा, छाड़ि रह्यौ सबही संसारा॥
जसकर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसें गुन बरनूं मैं तेरा॥
नहीं तहाँ रूप रेख गुन बांनां, ऐसा साहिब है अकुलांनां॥
नहीं सो ज्वान न बिरध नहीं बारा, आपै आप आपनपौ तारा॥
कहै कबीर बिचारि करि, जिन को लावै भंग॥
सेवौ तन मन लाइ करि, राम रह्या सरबंग॥
नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं सो तात नहीं सो सियरा॥
पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, धांम न धांम न ब्यापै पीरा॥
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं सो कांच नहीं सो हीरा॥
कहै कबीर बिचारि करि, तासूँ लावो हेत॥
बरन बिबरजत ह्नै रह्या, नां सो स्यांम न सेत॥
नां वो बारा ब्याह बराता, पीत पितंबर स्यांम न राता॥
तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता॥
नाद नबिंद गरंथ नहीं गाथा, पवन न पांणी संग न साथा॥
कहै कबीर बिचार करि, ताकै हाथि न नाहिं॥
सो साहिब किनि सेविये, जाके धूप न छांह॥
ता साहिब कै लागौ साथा, सुख दुख मेटि रह्यौ अनाथा॥
ना दसरथ धरि औतरि आवा, नां लंका का राव संतावा॥
देवै कूख न औतरि आवा, ना जसवै ले गोद खिलावा॥
ना वो खाल कै सँग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया॥
बाँवन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उधरिया॥
गंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्नै जलहिं न डोला॥
बद्री वैस्य ध्यांन नहीं लावा, परसरांम ह्नै खत्री न सतावा॥
द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगन्नाथ ले प्यंड न गाड़ा॥
कहै कबीर बिचार करि ये ऊले ब्योहार॥
याही थैं जे अगम है, सो बरति रह्या संसारि॥
नां तिस सबद व स्वाद न सोहा, ना तिहि मात पिता नहीं मोहा॥
नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, ना तिहि रोज न रोवनहारा॥
नां तिहि सूतिग पातिग जातिग, नां तिहि माइ न देव कथा पिक॥
ना तिहि ब्रिध बधावा बाजै, नां तिहि गीत नाद नहीं साजै॥
ना तिहि जाति पांत्य कुल लीका, नां तिहि छोति पवित्रा नहीं सींचा॥
कहै कबीर बिचारि करि, ओ है पद निरबांन।
सति ले मन मैं राखिये, जहा न दूजी आन॥
नां सो आवै ना सो जाई, ताकै बंध पिता नहीं माई॥
चार बिचार कछु नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै॥
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्नै रहिये॥
कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोजै दूरि॥
ध्यान धरौ मन सुध करि, राँम रह्या भरपूरि॥
नाद बिंद रंक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला॥
आपै मंत्रा आपै मंत्रोला, आपै पूजै आप पूजेला॥
आपै गावै आप बजावै, अपनां कीया आप ही पावै॥
आपै धूप दीप आरती, आपनीं आप लगावै जाती॥
कहै कबीर बिचारि करि झूठा लोही चांम॥
जो या देही रहित हैं, सो है रमिता राम॥