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बारह / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

अरे! ओ पगले!
मत दाल नजर उस घर पर
जिस घर में है काली नागिन

एक बार डँसी होती तो कोई बात नहीं
सौ बार को डँसने वालों पर कैसे इतने विश्वास जमें
क्यों काली नागन देख-देख तेरे नयनों के अश्रु थमें
गज़ब हो गया ऐसे भी दीवाने जग में होते है
सीने में डँसने बाले को सीने से सटा सँजोते हैं


अरे! ओ पगले!
जो हो न सकी है तेरी, जो हो न सकेगी तेरी
क्यों जीवन में उसके लिए तुम लगा रहे हो फेरि

जान-बुझ कर कौन जला है ज्वाला में
कौन जान कर शूल गूँथा है माला में
वह रही है तुम्हें नहीं, तुम देख उसे क्यों इतराते
निष्ठुर दीपक की दर्द नहीं, तुम क्यों पतंग जलने जाते

अरे! ओ पगले!
जो रीती थी! जो रीती है जो बीती थी! जो बीती है
उठ चलो ढूंढ लो इस जग में अब भी तो कितनी जीती है

कौन करे विश्वास कहो भढुआ की नई हबेली का
कौन छुछुंदर के माथे डाला है तेल चमेली का
डाले तो तुम बदबू आई, बदबू से नाक सिकोड़े मत
अपने सावभाव पर अटल है वह अपना स्व्भाव तुम छोड़ो मत