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बालकपण तै दुखी रहया, सही बख्त की मार मनै / रामेश्वर गुप्ता

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बालकपण तै दुखी रहया, सही बख्त की मार मनै
मात मेरी नै फुर्सत ना थी, कब देती मां का प्यार मनै

पहर के तड़के चाक्की झौती, कुणबे का पेट भरण नै
सब के खातिर रोटी-टुकड़ा, कुण सोचै बात मरण नै
भैंस की सान्नी, धार काढ्णा, थे सत्तर काम करण नै
सब दुनिया मतलब की देखी, ना सोची पीड़ हरण नै
हर दम हाड़ पेलती देखी, ना सुण्या कदे इन्कार मनै

दूध बिलौणा, झाडू बुहारी, वो बंधी-बंधाई करती
बालक सारे भेज स्कूल म्हां, साफ-सफाई करती
पाटे पै टांका, बटण लगाणा, फेर धुलाई करती
औलाद के नखरे डांट सहणा, फेर समाई करती
जूते, गोळी चोकिरदे तै, चलते देखे हथियार मनै

ग्वारा और रोटी हाळी की, खेत पहुंचाणी हो थी
दो कोस तै घास की गठड़ी, सिर पै ल्याणी हो थी
झाड़-बुहारी लीपा-पोती, सब गात पै ठाणी हो थी
हाथ म्हां मूसल रात गए, जीरो की घाणी हो थी
इतना शोषण ईब सोचूं सूं, क्यूं करया स्वीकार तनै

आधी रात गए सौणा, फेर पहर के तड़के उठज्या थी
कोल्हू की बैल जणों वो, फेर काम पै जुटज्या थी
कोई इच्छा मन म्हं उठी, छाती के म्हां घुटज्या थी
गलती तै गर कह बैठी, बिना बात के पिटज्या थी
पशुओं की ज्यूं दुबकी तू, सहती देखी दुत्कार मनै

जापै पै जापा घणी मुसीबत, तन पै औटे जा थी
घर म्हां तंगी खाण-पीण की, सहती टोट्टे जा थी
जाथर थोड़ा बोझ घणा, आग पै लोटे जा थी
नहीं इजाजत करै फैसला, सांस नै घोटे जा थी
लड़ी लड़ाई जिन्दगी की, फिर भी करती तैयार मनै

कदे छोरी का ब्याह करणा, कदे सगाई आ गी
घणे बाळकां के कारण, सिर करड़ाई आ गी
हर मुसीबत मेरी मां के सिर, बिना बुलाई आ गी
कदे पीळिया कदे भात, कदे गोद भराई आ गी
जोड़-घटा के चक्कर म्हां, जिन्दगी देखी दुस्वार मनै

खुद पहरे सदा पाटे-टुट्टे, धी की त्यूळ सिमाई
छाछ म्हां हिस्सा ना था, कुण सोचे दूध मलाई
इतने दुख सहगी चुप रह कै, जरा नहीं लरजाई
क्यूकर होगी भीत बराबर, नहीं समझ म्हां आई
टीस उठै मेरे भीतर तक, दाब लई हर बात मनै

मरणा कदे जामणा, कदे किसी की शादी होगी
के देना के संगवाणा, इसी फिकर म्हं आधी होगी
आज भी वाहे सोच खड़ी, तू दादी परदादी होगी
इज्जत मान के मिलणा था, सेहत की बरबादी होगी
दुभांत पै ‘ रामेश्वर ‘ रोवै, क्यूं ली आखिरकार तनै