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बालविनय / रामचंद्र शुक्ल

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(1)
आदि हेतु, अनादि और अनन्त, दीन दयाल।
जोरि जुग कर करत विनती सकल भारत बाल ।।
विविध विद्या कला सीखैं त्यागि आलस घोर।
दूर दुख दारिद बहावें देश को इक ओर ।।
(2)
सहस संकट सहहिं साहस सहित यहि जग माहिं।
भूलि निज कर्त्तव्य सों मुख कबहुँ मोरहिं नाहिं ।।
मिलि परस्पर करहिं कारज सहित प्रीति हुलास।
कबहुँ ईर्षा द्वेष को नहिं देहिं फटकन पास ।।
(3)
सत्य सों करि नेह त्यागहिं झूठ को व्यवहार।
तजि कुसंग, सुसंग खोजत फिरहिं हम प्रतिद्वार ।।
रहहिं उद्यत बड़न की शुभ सीख सुनिबे हेत।
कहहिं वे जो तुरंत तिहि सुनि करहिं मन में चेत ।।
 
 (बाल प्रभाकर, फरवरी, 1910)