भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाल / सूर्यकुमार पांडेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ के उजले, कुछ के भूरे, कुछ के होते काले बाल,
कुछ के सँवरे, कुछ के बिगड़े, कुछ के हैं घुँघराले बाल।
बाल-बाल बच गये फिसलकर, मोटी तोंद मुछन्दर लाल,
चोट नहीं लग पायी सिर में, बचा ले गये उनको बाल।
नहीं धूप में मिली सफ़ेदी, अनुभव वाले मुन्नू लाल,
ढूँढ़ लिया करते झटपट हल, हों पेंचीदा लाख सवाल।
बाल बिखेरे कल्लू आया, बाल बढ़ाए गिरधर लाल,
बाल न बाँका होने पाये, उनको बता रहे हैं बाल।
नहीं बाल की खाल निकालो, बनो न कभी नाक के बाल,
बूढ़े-बड़े यही बतलाते, रहते इनसे दूर बवाल।
सिर पर चाँद नज़र आती है, साफ़ हो गये सारे बाल,
अगर सभी गंजे पैदा हों, नाई हो जाएँ बेहाल।
बिना बाल की हो यदि दुनिया, जूँ का मिट जाए जंजाल,
तेल और कंघी की छुट्टी, अगर न हों बिलकुल ही बाल।