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बाहर आलीशान / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
बाहर आलीशान
भीतर से बहुत
टूटे हुए घर
बदलते
मौसमों की तरह
सब, नेह के सुर
जो थे कोमल हृदय
लगने लगे हैं
जानवर के खुर
मुँडेरों पर
सजा आये हैं
सब ही
नींव के पत्थर
बड़ी बेचैन हो कर
घूमती हैं
अब हवाएँ
कोई सुनता नहीं है
अब
किसी की भी सदायें
लिए ऊँची उड़ानों
की उम्मीदें
कतरे हुए पर
सजे दिखते हैं
अब तो
हाट जैसे, रिश्ते सारे
सतह पर राख
भीतर हैं
सुलगते से अंगारे
सभी के जिस्म पर
चिपके हुए हैं
मतलबी सर