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बाहर की दुनिया लगती है / रमेश तैलंग

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बाहर की दुनिया लगती है
सचमुच कितनी जगर-मगर।
घर के अंदर आते ही पर
हो जाती है खटर-पटर।

अच्छा-भला मूड सबका, पर
जाने क्या हो जाता है।
बिना बात हर कोई एक-
दूसरे पर चिल्लाता है।

टी.वी. का है अजब नजारा,
घंटों चलता जाता है।
जिसके हाथों में रिमोट वो-
‘चुप!चुप!’ कह धमकाता है।

तब लगता है हमको जैसे
पूरा घर हो पागलघर।
सही नहीं जाती जिसमें
बच्चों की थोड़ी बकर-बकर।