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बाहर ख़ला है, ज़ात के अंदर भी कुछ नहीं / रमेश तन्हा

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बाहर ख़ला है, ज़ात के अंदर भी कुछ नहीं
देखो तो डर बहुत है मगर डर भी कुछ नहीं।

फूलों की सेज कुछ नहीं, बिस्तर भी कुछ नहीं
ग़म-कुश्ता आदमी के लिए घर भी कुछ नहीं।

बूढ़े शजर उखड़ गये इस में मलाल क्या
पागल हवा चलेगी तो पत्थर भी कुछ नहीं।

आतिश-मिजाज़ लोग भी कहते सुने गये
सूरज वहम है, मह-ओ-अख़्तर भी कुछ नहीं।

आईना-वार, खुश हैं बहुत बे लिबासियां
जैसे कि नंगो-नाम की चादर भी कुछ नहीं।

ये क्या कि मौसमे-सितम-ईजाद के लिए
बर्गो-समर भी हेच गुले-तर भी कुछ नहीं।

जो गुम-रही की आंख से देखा तो यूँ लगा
फहमो-ज़का-ओ-शौक़ के दफ़्तर भी कुछ नहीं।

मुझको हक़ीर कहने से पहले ये सोच ले
क़तरा जो कुछ नहीं, तो समंदर भी कुछ नहीं।

आवारगाने-शौक़ के आगे हवा तो क्या
महशर-क़दम हवाओं के लश्कर भी कुछ नहीं।

फिक़्रो-सुख़न में खून जला कर पता चला
सौदा भी एक वहम है और सर भी कुछ नहीं।

सादिक़ निगाह के लिए हर शय में लुत्फ है
वरना निशातो-कैफ़ के मंज़र भी कुछ नहीं।

तर्के-तलब भी सोचिये 'तन्हा' तो ठीक है
लेकिन फिर अपने शौक़ से बेहतर भी कुछ नहीं।