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बिखरी हुई हयात से सिमटे लिबास थे / रमेश 'कँवल'
Kavita Kosh से
बिखरी हुर्इ हयात1 से सिमटे लिबास थे
हम डूबती सदाओं2 के कुछ आस-पास थे
आंखों में अपनी मंज़रे-सद-दस्ते-यास3 थे
हम मौसमे-बहार से यूंरू शनास4 थे
आया न कोर्इ आशना5 चेहरा ही सामने
हम शहरे-ख़्सवाबे-ज़ार6 में बेहद उदास थे
रंगीन तितलियों ने लुभाया बहुत मगर
हम पानियों के शहर में टूटे गिलास थे
फैली हुर्इ थी ख़ौफ की इक धुंध चारसू7
जंगल के जानवर भी बहुत बदहवास थे
लम्हों की धूप छांव ने पहचान छीन ली
हम आइनों के गांव में इक देवदास थे।
तुम वहम की गुफाओं में खो जाओगे 'कंवल’
हम को भी सब कहेंगे कि निष्फल प्रयास थे।
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