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बिच्चे से उपहल पिरीत / सतीश मिश्रा

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गाँव-गली, फूल-कली टभकऽ हे तोरा बिना
ललकी चुनरिया के मीत रे!

अंगुरी के मेंहदी से छूअलकी भितिया पर
दंगदग हे आजो ले दाग
छप्पर के झिंझरी से धुधुआ हे अबहीं ले
तोहर चिपुरिया के आग
ओही हे बरसोरी, बैलन के झिकझोरी
डउँघी पर कोइली के गीत रे।

डेढ़बर ओठँघावल केंवड़िया के पीछे
ऊ तागा आउ सुइआ के खेल
देखेला तरसित ओसरवा के चउकी पर
अँखिया सावन-भादो भेल
ओइसहीं पट बादर हे, ओइसहीं चित धरती भी
बिच्चे से उपहल पिरीत रे।

हँथवा में बट्टा ले, बनियाँ ही जाएला
गलिया में कुरचित ऊ चाल
झुलकल लीलरवा पर घुंघुर सरिआवित
आउ मुसकी से उड़वित गुलाल
भोरे के किरनी तूँ, काँधा पर पच्छिम जा
कैलऽ पुरुबवा के तीत रे।
गाँव-गली, फूल-कली टकभऽ हे तोरा बिना
ललकी चुनरिया के मीत रे।