बिछिया / रवीन्द्र भारती
फ़ुटपाथ पर सँवर रही हैं कचरा चुनने वाली लड़कियाँ
एक-दूसरे को हाथ में थमाकर आईना
बना रही हैं चोटी, लगा रही हैं किलिप
फुदक रही हैं मन-ही-मन ।
नहीं है कोई दीवाल दरवाज़ों और आँगन के बीच
नहीं हैं कुण्डियों से झूलती ज़ंजीरें
खुली राह में काली के ब्याह का बज रहा है ढोल
हो रही हुलिहुली ।
सरग-नरक के किस पिछवाड़े से उठाकर
लाती हैं वे ऐसा अपूर्व उल्लास
कचरा चुनते-चुनते कहाँ से चुन लेती हैं
इतनी मुहब्बत, इतनी बेफ़िक्री
कि हज़ार राहों की आतिशबाजियों की रोशनियाँ
थिरकते हुए लगती हैं बिखेरने !
भविष्य की चिन्ता में मुस्कराते दृश्यों से नज़र चुरानेवाले
कल्पना भी नहीं कर सकते
जिस आह्लाद के साथ पचासों अनाम लोग
काली के दूल्हे के साथ खा रहे हैं माछ-भात
पूरा फ़ुटपाथ जलतरंग की तरह बज रहा है
और लड़कियों की आँखों में चमक रही है
काली के पैरों की बिछिया ।