बिना अरणि की ज्वाला बन कर,
औंट रही तुम मुझे निरन्तर।
रहा न मेरा वश अपने पर,
कौन और जो, तुम्हें छोड़ कर,
घन तुम-अवगुण्ठन के भीतर,
मेरी ज्योति-लहर?
कहीं न विकल हृदय पाता लग,
पड़ते जहाँ-तहाँ मग में पग,
नहीं सूझता मुझे कहाँ जग,
क्या दिन रात, पहर?
उस दिन चित्रलिखित-सा अपलक,
बिना हिले मैं बहुत देर तक,
रहा देखता तुम्हें एकटक,
ध्यानलीन होकर।
व्रणपीड़ित मेरा वह अन्तर,
शतसहस्रधा जिसे विद्ध कर,
तुमने दिया निषंग रिक्त कर,
शरवर्षण से भर