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बिना पुल के / कुमार वीरेन्द्र
Kavita Kosh से
नदी के इस पार
मेरा घर, नदी के उस पार, उसका
जब शादी तय हुई, लाँघने को नाव नहीं थी, बाँसों को जोड़ पार होने का जो ज़रिया
था, वह भी कब का टूटकर, डह गया था; यह तो अच्छा, जेठ में शादी, पानी कम था
इसलिए तिलक के लिए जो आए, नदी में उतरकर आए, बारात भी
जब गई नदी में उतरकर गई; दुल्हन भी डोली में कहारों
के कन्धे टँग पार आई; सुनो, सामने जो दिख
रहा है न पुल, यह आज न बना
है, कभी बिना पुल
के भी
रिश्ते बनते थे !