भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिन्ना हो गईं स्यानी मर रये ऐई फिकर के मारें / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिन्ना<ref>लड़की</ref> हो गईं स्यानी<ref>जवान</ref> मर रये ऐई फिकर के मारें
उलटीं रोज़ उसाँसें भर रये ऐई फिकर के मारें

पढ़े लिखे घिस रये पन्हैयाँ मौड़ा मौड़न वारे
सोच-सोच कें रोज़ कुकर रये ऐई फिकर के मारें

टूटौ छान ,उसारौ टूटौ ,टूटी खाट,मड़ैया
आ गऔ है बसकारौ<ref>बरसात</ref> घुर<ref>घुल</ref> रये ऐई फिकर के मारें

उन्ना<ref>कपड़ा</ref> सब हो गए चींथरा<ref>चिन्दी होना</ref>, लरका भये उघारे
गिन गिन कें अब दिना निकर रये ऐई फिकर के मारें

त्योरस<ref>पिछले दो साल</ref> तौ पर गऔ तौ सूखा ,पर खों<ref>पिछले साल</ref> झर लग गयी ती
आसों कैसी हुइयै चुर<ref>उबल रहे</ref> रये ऐई फिकर के मारें

तू<ref>पेट में बच्चे का मरना</ref> नें जावै धौरी<ref>सफ़ेद</ref> गैया जैसी कबरी तू गयी
सुगम फूँक कें हम डग धर रये ऐई फिकर के मारें

शब्दार्थ
<references/>