बिम्ब का प्रतिबिम्ब / प्रवीण कुमार अंशुमान
वाह्य जगत की सीमाओं का
कहीं दिखता कोई अंत नहीं,
हर ओर सदा जो फैला रहता
उसका कोई निश्चित पंत नहीं;
विस्तीर्ण गगन में इस दुनिया का
जो सदा निमंत्रण सबको देता,
अपनी परिधि के पूर्ण व्यास का
जो मापदण्ड है पूरा कर लेता;
ब्रह्माण्ड की पूरी माया का
जिस काया पर आभास हुआ,
मानव मन की चेतना का
जब देखो पूर्ण विकास हुआ;
मनुष्य-योनि का ये प्रादुर्भाव
जब युगों-युगों के बाद हुआ,
समाविष्ट हुए जहाँ सारे भाव
त्रिकाल जहाँ आबाद हुआ;
द्वैत जहाँ हो जाता सम्मिलित
मृण्मय में अमृत कोश का,
जिस बेला में होता वो मिश्रित
अंतहीन परिणय ‘होश’ का;
पीड़ा की अकथ कहानी जब
अनुगूँज हुई हृदय के अन्दर,
नाभिकेंद्र में करके प्रवेश तब
मानव-डिम्ब जब बना समन्दर;
अनादि काल के आलिंगन में
दो छोर सदा आकर झुकते हैं,
प्रकाश जहाँ मिलता है उसमें
स्तब्ध होके वहाँ सब रुकते हैं;
उस विराट का ‘कथा-चरित’
प्रतिवेदन करता है पुरज़ोर,
प्राकट्य रूप में अभिसिंचित
विस्तृत होता जो चारों ओर;
संसार हो जिसकी कुल छाया
रहस्य में होता जिसका वास,
उस निकाय की वो प्रतिकाया
सृष्टि का केंद्र जब आए पास;
इस अंतहीन प्रणय की प्रीत
बस हुई प्रकट ‘मनुष्य-मन’ में,
परिमाण में आता परम् मीत
मानव के असली चितवन में;
इस दुनिया में जो ढूँढ़ रहा
वह उसका ही तो बिम्ब है,
तृष्णा में वो जो खोज रहा
वो उसका ही प्रतिबिम्ब है ।