बिहारी सतसई / भाग 15 / बिहारी
दोहा संख्या 141, 142 और 143 यहाँ जोड़ने बाकि हैं
पहिरत हीं गोरैं गरैं यौं दौरी दुति लाल।
मनौ परसि पुलकित भई बौलसिरी की माल॥144॥
गरे = गले। परसि = स्पर्श करके। बौलसिरी = मौलसिरी, फूल-विशेष।
उसके गोरे गले में पहनते ही, हे लाल, ऐसी चमक (उस माला में) आ गई, मानो (वह) मौलसिरी की माला भी उसके स्पर्श से पुलकित हो गई हो-रोमांचित हो गई हो!
कहा कुसुम कह कौमुदी कितक आरसी जोति।
जाकी उजराई लखैं आँख ऊजरी होति॥145॥
कुसुम = फूल, जो कोमलता और सुन्दरता में प्रसिद्ध है। कौमुदी = चाँदनी। आरसी = आईना, दर्पण। आँख ऊजरी होति = आँखें तृप्त हो जाती हैं-प्रसन्न अथवा विकसित हो जाती हैं।
फूल, चाँदनी और दर्पण की ज्योति की उज्ज्वलता को कौन पूछे? (वह नायिका इतनी गोरी है कि) जिसकी उज्ज्वलता को देखकर (काली) आँखें उजली हो जाती हैं।
नोट - ‘प्रीतम’ जी ने इसका अनुवाद यों किया है-
कुमुद औ चाँदनी आईनः यह रंगत कहाँ पाये।
शबाहत देख जिसकी आँख में भी नूर आ जाये॥
कंचन तन धन बरन बर रह्यौ रंगु मिलि रंग।
जानी जाति सुबास हीं केसरि लाई अंग॥146॥
घन = नायिका। बरन = वर्ण, रंग।
नायिका के सुनहले शरीर के श्रेष्ठ रंग में (केसर का) रंग मिल-सा गया है। (फलतः) अंग में लगी हुई केसर अपनी सुगंध से ही पहिचानी जाती है।
अंग अंग नग जगमगत दीपसिखा-सी देह।
दिया बढ़ाऐं हू रहै बड़ो उज्यारो गेह॥147॥
नग = आभूषणों में जड़े हुए नगीने। दीपसिखा = दीपशिखा, दीपक की टेम या लौ। दिया बढ़ाऐं हू = दीपक को बुझाने पर भी। उज्यारो = उजेला।
दीप की लौ के समान उसके अंग-प्रत्यंग में नग जगमगा रहे हैं। अतएव, दीपक बुझा देने पर भी घर में (ज्योतिपूर्ण शरीर और नगों के प्रकाश से) खूब उजेला रहता है।
ह्वै कपूरमनिमय रही मिलि तन-दुति मुकुतालि।
छिन-छिन खरो बिचच्छनी लखति छाइ तिनु आलि॥148॥
कपूरमनि = कर्पूरमणि = कहरवा, यह पीले रंग का होता है और तिनके का स्पर्श होते ही उसे चुम्बक की तरह पकड़ लेता है। दुति = चमक। मुकुतालि = मुक्तालि, मुक्ताओं के समूह। खरी = अत्यन्त। बिचच्छनी = चतुरा स्त्री। छाइ = छुलाकर। तनु = तिनके। आलि = सखी।
शरीर की (पीली) द्युति से मिलकर मुक्ता की (उजली) माला (पीले) कर्पूरमणि-कहरुवा-की माला-सी हो रही है। अतएव, अत्यन्त सुचतुरा सखी क्षण-क्षण (उस माला से) तिनका छुला-छुलाकर देखती है (कि अगर कहरुवा की माला होगी, तो तिनके को पकड़ लेगी)।
खरी लसति गोरैं गरैं धँसति पान की पीक।
मनौ गुलीबँद लाल की लाल लाल दुति लीक॥149॥
धँसति = हलक के नीचे उतरती है। खरी = अधिक। लसति = शोभती है। गुलीबँद = गले में बाँधने का आभूषण, जिसे कंठी कहते हैं। लाल = लाल मणि। लीक = रेखा, लकीर।
(उस गोरी के) गोरे गले में उतरती हुई पान की पीक बड़ी अच्छी लगती है। (उसे कंठ तक करते समय अत्यन्त सुकुमारता के कारण) जो पीक की ललाई बाहर झलकती है, (सो) लाल-लाल लकीरों की चमक (ऐसी मालूम पड़ती है) मानो लाल मणियों की कंठी (उसने पहली) हो।
बाल छबीली तियन मैं बैठी आपु छिपाइ।
अरगट ही फानूस-सी परगट होति लखाइ॥150॥
(वह) सुन्दरी बाला स्त्रियों (के झुण्ड) में अपने-आपको छिपाकर जा बैठी। किन्तु फानूस (की ज्योति) के समान वह अलग ही (साफ) प्रकट दीख पड़ने लगी।