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बिहारी सतसई / भाग 62 / बिहारी

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पार्‌यौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय-नेह।
उनदौंहीं अँखियाँ ककै कै अलसौंहीं देह॥611॥

सौरु पार्‌यौ = शोर या शुहरत मचा दी है, ख्याति फैला दी है। सुहाग = सौभाग्य। बिनु हीं पिय-नेह = पति प्रेम के बिना ही। उनदौंहीं = उनींदी, ऊँघती हुई। ककै = करके। कै = या। अलसौंहीं = अलसाई हुई।

ऊँघी हुई आँखें या अलसाई हुई देह बना-बनाकर इस स्त्री नेबिना प्रियतम के ही अपने सुहाग की ख्याति फैला दी है।

नोट - सखी नायिका से कह रही है कि यद्यपि तुम्हारा प्रीतम तुम्हारी सौत पर अनुरक्त नहीं, तो भी वह उनींदी आँखें, अलसाई देह आदि चेष्टाएँ दिखाकर जनाती है कि सदा नायक के साथ रति-क्रीड़ा में जगी रहती है।


बहु धन लै अहसानु कै पारो देत सराहि।
बैद-बधू हँसि भेद सौं रही नाह-मुँह चाहि॥612॥

अहसानु कै = अपनी मिहरबानी या उपकार जताकर। पारो = पारे की भस्म, कामोद्दीपक रसायन। भेद सौं = मर्म के साथ, रहस्यपूर्ण। नाह = पति। चाहि = देखना।

बहुत धन लेकर, बड़े अहसान के साथ, खूब सराहकर पारा देता है (कि इसके खाते ही तुम्हरा नपुंसकत्व दूर हो जायगा।) यह देख वैद्यजी की स्त्री रहस्यभरी हँसी हँसकर अपने (नपुंसक) पति (वैद्यजी) का मुख देखने लगी (कि आप तो स्वयं नपुंसक हैं, फिर यही दवा खाकर आप क्यों नहीं पुंसत्व प्राप्त करते? लोगों को व्यर्थ क्यों ठग रहे हैं!)


ऊँचे चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेतु।
झलकित दृग मुलकित बदनु तनु पुलकित किहिं हेतु॥613॥

ऊँचे = ऊपर की ओर। चितै = देखकर। मुलकित = हँसती है। पुलकित = रोमांचित होती है।

ऊपर की ओर देखकर गिरह मारते हुए कबूतर को सराह रही हो। किन्तु किसलिए तुम्हारी आँखें चमक रही हैं, मुख हँस रहा है और शरीर रोमांचित हो रहा है। (निस्संदेह तुम उस कबूतर के मालिक छैल-छबीले विलासी पर आसक्त हो, तभी तो उसके गिरहबाज कबूतर को देखते ही उसकी याद में तुम ऐसी चेष्टाएँ दिखा रही हो!)


कारे बरन डरावने कत आवत इहिं गेह।
कै वा लखी सखी लखैं लगै थरहरी देह॥614॥

बरन = रंग। कत = क्यों। गेह = घर। कै = कई बार। लखी = देखा। थरहरी लगै = थरथरी या कँपकँपी होती है।

(यह) काले रंग का डरावना मनुष्य (श्रीकृष्ण) इस घर में क्यों आता है? मैं इसे कई बार देख चुकी हूँ, और हे सखी! इसे देखते ही मेरी देह में थरथरी लग जाती है-मैं डर से थरथर काँपने लगती हूँ।


और सबै हरषी हँसती गावति भरी उछाह।
तुहीं बहू बिलखो फिरै क्यौं देवर कैं ब्याह॥615॥

उछाह = उत्साह। बिलखी = व्याकुल।

और सब स्त्रियाँ तो प्रसन्न हुई हँसती हैं और उत्साह में भरी गीत गा रही हैं। किन्तु देवर के ब्याह में, हे बहू! तू ही क्यों व्याकुल हुई फिरती हो?

नोट - देवर पर भौजाई अनुरक्त हैं। अब यह सोचकर, कि देवरानी के आते ही मुझ पर देवर का ध्यान न रहेगा, यह व्याकुल है।


रबि बंदौ कर जोरि ए सुनत स्याम के बैन।
भए हँसौहैं सबनु के अति अनखौंहैं नैन॥616॥

बंदौं = प्रणाम करो। हँसौंहैं = हास्यपूर्ण। अनखौंहैं = क्रुद्ध।

हाथ जोड़कर सूर्य को प्रणाम करो-यह श्रीकृष्ण का वचन सुनकर (चीर-हरण होने के कारण नग्न बनी हुई) सभी गोपियों की अत्यन्त क्रोधित आँखें भी हँसीली बन गईं (कि इनकी चतुराई तो देखो, इन हाथों से ढकी हुई रही-सही लज्जा भी ये लूटना चाहते हैं!)


तंत्री-नाद कबित्त-रस सरस राग रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग॥617॥

तंत्री-नाद = वीणा की झंकार। रति-रंग = प्रेम का रंग। अनबूड़े = जो नहीं डूबे। तरे = तर गये, पार हो गये।

वीणा की झंकार, कविता का रस, सरस गाना और प्रेम (अथवा रति-क्रीड़ा) के रंग में जो नहीं डूबा-तल्लीन नहीं हुआ (समझो कि) वही डूब गया-अपना जीवन नष्ट किया; और जो उसमें सर्वांग डूब गया-एकदम गर्क हो गया, (समझो कि) वही तर गया-पार हो गया-इस जीवन का यथार्थ फल पा गया।


गिरि तैं ऊँचे रसिक-मन बूड़े जहाँ हजारु।
वहै सदा पसु-नरनु कौं प्रेम-पयोधि पगारु॥618॥

पयोधि = समुद्र। पगारु = एकदम छिछला, पायान।

पर्वत से भी ऊँचे रसिकों के मन जहाँ हजारों डूब गये, वही प्रेम का समुद्र नर-पशुओं के लिए सदा छिछला ही रहता है-(इतना छिछला रहता है कि उसमें उनके पैर भी नहीं डूबते!)


चटक न छाँड़तु घटत हूँ सज्जन नेहु गँभीरु।
फीकौ परै न बरु फटै रँग्यौ चोल-रँग चीरु॥619॥

चटक = चटकीलापन। सज्जन = सदाचारी, सहृदय। बरु = भले ही। चोल = मजीठ। चीर = वस्त्र।

सज्जनों का गम्भीर प्रेम घटने पर भी अपनी चटक नहीं छोड़ता-कम हो जाने पर भी उसकी मधुरिमा नष्ट नहीं होती। जिस प्रकार मँजीठ के रंग में रँगा हुआ वस्त्र फट भले ही जाय, किन्तु फीका नहीं पड़ता।


सम्पति केस सुदेस नर नवत दुहुनि इक बानि।
विभव सतर कुच नीच नर नरम बिभव की हानि॥620॥

सम्पति = धन, वृद्धि, ऐश्वर्य। सुदेस नर = सज्जन पुरुष, भलामनस। बानि = आदत। बिभव = विभव = धन, यौवन। सतर = ऐंठ।

ऐश्वर्य पाकर-बढ़ने पर-केश और सज्जन पुरुष नरम पड़ जाते हैं, इन दोनों की एक आदत है। कुच और नीच आदमी विभव पाकर ऐंठने लगते हैं, और विभव की हानि होते ही नरम हो जाते हैं।