बिहारी सतसई / भाग 63 / बिहारी
न ए बिससियहि लखि नए दुर्जन दुसह सुभाइ।
आँटैं परि प्राननु हरैं काँटैं लौं लगि पाइ॥621॥
बिससियहि = विश्वास कीजिए। नए = नम्र बने हुए। आँटैं परि = दाँव लगने पर, घात पाने पर। पाइ =पैर
इन दुःसह स्वभाव वाले दुर्जनों को नम्र होते देखकर विश्वास न कीजिए। घात लगने पर ये काँटे के समान पैर में लगकर प्राण ही ले लेते हैं।
जेती सम्पति कृपन कैं तेती सूमति जोर।
बढ़त जात ज्यौं-ज्यौं उरज त्यौं-त्यौं होत कठोर॥622॥
कृपन = सूम, शठ। सूमति = सूमड़ापन, शठता। उरज = कूच।
सूमड़े आदमी का धन जितना ही बढ़ता है, उतनी ही उसकी शठता भी जोर पकड़ती जाती है। (जिस प्रकार नवयौवना के) कुच ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं, त्यों-त्यों कठोर होते जाते हैं।
नीच हियैं हुलसे रहैं गहे गेंद के पोत।
ज्यौं-ज्यौं माथै मारियत त्यौं-त्यौं ऊँचे होत॥623॥
हियैं = हृदय। हुलसे रहैं = हुलास से भरा रहता है, उत्साह से भरा हुआ। पोत = ढंग, स्वभाव।
गेंद का ढंग पकड़े हुए नीच आदमी का हृदय (अपमानित किये जाने पर भी) सदा हुलास से भरा ही रहता है। (जिस प्रकार गेंद को) ज्यों-ज्यों माथे में मारिए, त्यों-त्यों वह ऊँची ही होती है।
नोट - कमीना सीनः डट फुटबाल के फैसन पे चलता है।
जो सिर पर लात मारे और ऊपर को उछलता है॥-प्रीतम
कैसैं छोटे नरनु तैं सरत बड़नु के काम।
मढ़यौ दमामौ जातु क्यौं कहि चूहे कैं चाम॥624॥
छोटे परनु = क्षुद्र मनुष्यों से। सरत = सिद्ध या पूरा होता है। दमामौ = नगाड़ा। चाम = चमड़ा।
ओछे आदमियों से-छुटहों से-बड़े आदमी का काम कैसे सध सकता है-कभी पूरा नहीं होता। कहो, चूहे के चाम से नगाड़ा केसे मढ़ा (छवाया) जा सकता है? कभी नहीं।
कोटि जतन कोऊ करौ परै न प्रकृतिहिं बीचु।
नल-बल जलु ऊँचै चढ़ै अंत नीच कौ नीचु॥625॥
प्रकृति = स्व्भाव। बीचु = फर्क। नल-बल = नल का जोर।
करोड़ों यत्न कोई क्यों न करे, किन्तु स्वभाव में फर्क नहीं पड़ता-स्वभाव नहीं बदलता। नल के जोर से पानी ऊपर चढ़ता है, पर अंत में वह नीच नीचे ही को बढ़ता है। (पानी का स्वाभाविक प्रवाह जब होगा तब नीचे ही की ओर)।
लटुवा लौं प्रभु कर गहैं निगुनी गुन लपटाइ।
वहै गुनी कर तैं छुटै निगुनीयै ह्वै जाइ॥626॥
लटुवा = लट्टू। लौं = समान। गुन = (1) गुण (2) रस्सी, डोरा। गुनी = (1) गुणयुक्त (2) डोरा-युक्त। निगुनी = (1) गुण-रहित (2) डोरा-रहित। यै = ही।
प्रभु के हाथ पकड़ते ही-अपनाते ही-लट्टू के समान गुणहीन में भी ‘गुण’ (‘लट्टू’ के अर्थ में ‘डोरा’) लिपट जाता है, किन्तु वही गुणी उनके हाथ से छूटते ही-ईश्वर से विमुख होते ही-पुनः गुण-हीन का गुण-हीन ही (‘लट्टू’ के अर्थ में ‘डोरा’) रह जाता है।
चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि मुत्तिय माल।
भेंट होत जयसाहि सौं भागु चाहियतु भाल॥627॥
पाइ = पाकर। मुत्तिय = मुक्ता, मोती। जयसाहि = बिहारीलाल के आश्रयदाता जयपुर-नरेश महाराज जयसिंह। भाल = अच्छा, कपाल।
निगुणी और गुणी-सभी-वहाँ से धन, मणि और मुक्ता की माला पाकर चलते हैं। हाँ, जयसिंह से भेंट होने के लिए भाग्य अच्छा होना चाहिए। (उसे भेंट ही होना कठिन है, यदि भेंट हो गई, तो फिर धन का क्या पूछना।)
यौं दल काढ़े बलख तैं तैं जयसाहि भुवाल।
उदर अघासुर कैं परैं ज्यौं हरि गाइ गुवाल॥628॥
दल = सेना। बलख = अफगानिस्तान का एक प्रान्त। भुवाल = भूपाल, राजा। उदर = पेट। अघासुर = कंस का साथी एक राक्षस, जो सर्प के रूप में आकर व्रज के बहुत-से ग्वालों और गौओं को निगल गया था।
हे जयसिंह महाराज, बलख देश से (शत्रुओं के बीच में फँसी हुई) अपनी सेना को आपने यों निकाल लिया, जिस प्रकार अघासुर के पेट में पड़ी हुई गौओं और ग्वालों को श्रीकृष्ण ने (निकाल लिया था)।
अनी बड़ी उमड़ी लखैं असिबाहक भट भूप
मंगलु करि मान्यौ हियैं भो मुँहु मंगलु-रूप॥629॥
अनी = सेना। असिबाहक = तलवर चलाने वाला, तलवारधारी। भट = शूर-वीर। मगलु = कुशल, आनन्द। मंगलु = मंगलग्रह, जिसका रंग लाल माना गया है। रूप = सदृश।
(शत्रुओं की) बड़ी उमड़ी सेना को देखकर तलवारधारी शूर-वीर राजा ने उसे हृदय में मंगल के समान जाना-आनन्ददायक समझा-और उनका मुँह (आनन्द और क्रोध से) मंगल (ग्रह) के समान (लाल) हो गया।
रहति न रन जयसाहि-मुख लखि लाखनु की फौज।
जाँचि निराखरऊँ चलैं लै लाखनु की मौज॥630॥
रन = युद्ध-भूमि। लखि = देखकर। लाखनु = लाखों। निराखरऊँ = गिरक्षर, वज्र-मूर्ख। मौज = बकसीस।
जयसिंह का मुख देखकर (शत्रुओं की) लाखों की फौज भी युद्ध-भूमि में नहीं ठहर सकती। (यों ही) उनसे याचना करके-दान माँगकर-निरक्षर (वज्र-मूर्ख) भी लाखों की बकसीस ले जाता है।