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बीच में डरे हुए हम / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
पीछे विस्मृत अतीत
आगे सूना भविष्य
बीच में खड़े हैं डरे हुए हम
टूटी नावों की यात्राएँ मिलीं नहीं कम
चीत्कार जलपाँखी का
बूढ़े पर-पंखों का टूटना
होंठों के बासी संवाद
सपनों का अपनों से रूठना
छूट गये राह में कहीं हरे-भरे द्वीप
अब तो है शेष
चिर-परिचित पतझरी कदम
लटका है किसी लाश-सा
थका हुआ धुँधला आकाश
हर अनुभव इस कदर अधूरा
कि हर पल है कहता - अवकाश
ऊपर सन्नाटा घनघोर
नीचे है शोर
बीच में उदासी को हेरती आँखें बेदम