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बीजक / गिरिजाकुमार माथुर

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अस्मि, अयस, प्रांगार
धू-धू कर जलते हैं
वाष्प-बंध चमकदार
मंडल फुलझड़ियों से आग्नेय रोमदार
हुताव्ययों के छिटक गिरे जलते गुल
नाचते कज्जल-लोंदे
मज्जामय दहके हुए मूल-क्षार
आवे सी लाल पड़ी धरतियाँ
संभावित भ्रूण-रूप आहुतियाँ
धधक धधक
महाभूत जलते रहे
सिकताएँ बनती रहीं
काली, पीली, रोलिम
नीलतूत, उत्तला
रक्त-तप्त भट्टी की प्रदाहित भूभुल-सी
मिट्टी पर मिट्टी की पर्पटियाँ जमती रहीं

एक दिन अघट क्षण में
पारहीन, रिक्त चक्षु, जृंभित पोपल से
आया था टूटकर
अक्ष-भ्रष्ट विकराल पिंड एक घोरकांत
नीले शिशु सूर्य को
पराशोण शृंगों से तोड़कर
झालों की जिह्वा खोल लीलने
लाखों वस्तु-देशों के मथे हुए अग्नि-भँवर
पाशों से फँसने लगे
बिंबिका के कंठ में
घूर्णित बवंडरों के भस्मक व्यूह
आखेटी हिंस्रों से पास-पास
विमोचित गुरुतागामि वेग से आने लगे
छूट पड़ीं महागाजों की प्रभंजन झंडियाँ
प्रसरित अंधड़-मेह तडिताणु छर्रों के
भासुर क्षोद फटी हुई प्रोटोन-झंझा के
घातक बाहुओं में घेरने लगे
अर्यमा-अर्यमा।

दूर तक अदृश्य कस परिवेष्ठन
भीषण धक्कों से हिला, झूला
डोल गया
अपार दिक्कंपों में
गरम द्युतिशिखाएँ अभी बुझीं,
अभी जलीं
मिलित होने लगीं-
वृहत्तर गुरुता से खिंचा
आटे की भीमाकार लोई सा
परम द्रव्य सूरज के कुंभोदर से

टूट गई लोई परिधियों की
अच्युत रहा किंतु महाभार
मंडल को काटकर निकल गया
असीमा में
असुर पिंड तिर्यक गति से
उपाण्ड रेखा पर-

घूमता हुआ अभंग अंध चक्रवात में
छिन्न उपशेष सभी प्रतिवर्तित
आ गिरा
अति धूप के खुले वापी मुख शंकु में

मनवन्तर बीत गए
वाष्पाग्नि बुझ गई
शीतल हो गए वेग
शेष रह गए कंदुक
सोनाभ, ससाँवर, रक्त
गंधकीय-पांडु, नील
जम्बु, विषहरित, पुरीष-कीच

-या
किसी वृद्ध अतितारा की वाम-मृत्यु
अंतः प्रतीप ध्वंस्फोट लिए आई थी
भीष्म भार उड़ी वाष्प-परिमा एक घनघोर
आरोही-पीठ पर धावित परिधि से बने
फटे हुए द्रव्यों के बुल्लेदार अण्डकोष
खिंच आए जाने किस अलक्षित संयोग से
अपरिचय से जम्नी नूतनता में
रचना संभावन लिए
कहीं अस्त होकर
कहीं जन्म लेने को

छुट गए व्याप्त-चेत
भीमावर्त्त बद्ध वेग
शून्यों की द्रवधारा के घुँघराले स्याम
लिए वृत्त-भँवरों की
कुंचित भुजाओं में
घूमते, समाते उपकुंडल विषम
पंचयाम
निकल गए मनवन्तर
ठंडे हो गए ताप
पिंडों में बँटी भिन्न ग्रथित अस्मिताएँ नई

केन्द्रित आसक्ति-शिखा जैसे किसी थाल में
नाचे द्युति-धुरी पर
आसपास परिक्रमा करें रोचन क्रमांतर से
अनुचार दीप वर्णों के
थाली भी घूमे
घूमे नौरंग आलोक भी-

यह वही पृथ्वी है
हरितांगी, नारंग, नील
ज्वालाएँ शांत हुईं,
बीज धारण को प्रस्तुत है आर्द्रवती
लिए ऊष्म सिंधुओं के आदिम नीर

बुझी धातुओं के गंध-नीहारों में डूब हुई
कोरी, अछूती नई रचना की भूमिका
एक अनवद्य स्वप्न-चित्र की यथार्थता
तरल धूमवेशी जलीय पिंड
अभी अभी पानी में बुझाई अंगारिका

मूसलधार पर्दों के टँगे पुराण-मेघ
धाराधार बरसे
करोड़ों गरम रात-से
पीले, लाल-धूत
बलात् फटे चीथड़े
झुके हैं चंड-क्षितिजों पर
कोसों तक उमस से खदकते कच्छ-सीमांत
हो रहे फरैरे
सनकी हुई शीतोष्म अनियम वात से

यहाँ वहाँ भाप के घने कुहरे उड़ते हैं
सीले धरातलों के नए थेगले
कमठ-पीठ जैसे उभर उठते हैं
मीलों की मोटी पपड़ियाँ दरकती हैं
तड़क कर मुँह बाते हैं
गह्वर, दरार, विदर
झन्नती खाड़ियाँ
काया ऐंठ जाती है दूर तक भूमि की
कुटिल वक्र कूबड़ों सी
उभरती हे शैल राजि
फूलकर ठोस गुम्मड़ से पर्वत उठ आते हैं
भीषण खोखले अंध गर्तों में
विस्तृत विदीर्ण मार्गों से
भर जाती खल्लाते पानी की
प्राण-चाशनी
मिट्टी में होती हैं झंकृति रसायनी-

और फिर
तैलीय नैनू उतराया मथित सूक्ष्म का
पतला झागदार परम श्लिषि-मैल फैल गया
जमे प्राक-काई के थक्के जीवंत कोश
हीन-मृदा पूर्वज जलचर लता-गुल्मों के
अर्ण-सरणियों पर से
बैठने लगे
नए भरे सिंधुओं की निस्तल गुफाओं में

धीरे, कल्पों धीरे
महादलदलों की लोष्टित चिकनाई पर
शाकांश फेन का कवक-आवरण आया
सघन हुआ हरिताम्ल
आसन्न जन्मों का भास्वीय नियम उफनाया

कोटि प्राणधारा के
मूल रस-बिंदुभ
अनन्त शृंखलित हुए
रुके हुए बीज-चक्र
प्रथम बार घूम उठे

कोशेक से बढ़कर
लक्ष रूप-कोशों में
चेतना प्रवाही अजर आद्यशुक्र
विभुधाम
जाले से उकस आए
जीवों के अल्पित सार
बीज केन्द्रों के आसपास
गुप्त सृष्टियों के सूक्ष्म महासिंधु भर आए

गर्भित रहस्यों के विश्व-लघु अकल्पनीय
मनोतीत परिमाया में विचरित दुनियाएँ
लिए प्राण-ऋति के अमात्र ताने बाने
जन्मपूर्व की सीमा पर फिरती संध्याएँ
जीवन का समारंभ, संचारी क्रम-प्रवाह
भावी की सारी संभावनी निबिडताएँ
पूरे स्वरूप की अजात मुद्रित-गाथा
भावों के अर्थान्तर, संस्कार भाषाएँ

देह सृजनाओं के कीलित अभिप्रेत सूत्र
कूट इंगितों के भाष्यहीन मंत्र क्रियाशील
जीवों के निर्णीत गुण, धर्म, कर्म लेख
पिंड दाय के निघंटु
अराम चरित-इंजील

जन्मों के रहसि-अक्ष
विकल वंश-चेतना
दुर्लभ स्पंदों में
आदि प्रसव-वेदना
कृष्ण कुंड विकरों के
रस-पल्लव अनरीते
बिंदु की प्रतनु दुनिया
स्वस्ति, प्राण-रोचना।
कायातीत दुनिया यह
मायाविनि वर्जिता
तूहिनभास में छिपकर
चलती हुई विक्षुमा
मंदस धरातल स्वल्प
घूम-मुकुर की लिपियाँ
ओजस की बीज योनि
छायामित वर्तिका

सिंधु-तल्प सा जीवन
छिद्र-जंतु, नीर-पात
मीन-पुष्प, तंतु-लता
सीप-भूमि, अंध गात

अपने को दुहरातीं भ्रमि-श्रेणी कुंतलीय
संद्रव सरणियाँ
हेलिक्सों में पेचदार
मूलरसों की ईंटें
लक्षण-सोम अष्टिवारि विलग पड़े
क्रम से जुड़ जाते संस्कारवाह
परम अम्लों के अद्वितीय
पूरे बनने में
खिंचकर लम्बे होते छल्ले
चेतन जननांगों के
अज्ञात संचरित निर्णय

किसी अनबूझे गुप्त तर्क गणित से प्रेरित
बँट जाते परिपूर्ण भागों में टूटकर
चक्र-शृंखलाओं में बढ़ते हुए वर्गमूल

वर्जित कोशाओं के छुद्र किमाकारों में
झिलिमतार पड़े हुए पर्दे
अड़िग गोपनीय
अनधिग्य केन्द्र की अमूर्तित
गाधूलिमय गुफाओं से
बाहर आते हैं आश्चर्य भरे जीवरूप
दैत्य तरु फुफ्फुस के
भीमकाय छाते तान खड़े हुए
मोटी नाल वाले क्षत्रज गीले
पृथुल घनी सूँड़े पसरती हुई-
मातृ-लताओं की
बड़े-बड़े सूपों को हिलाते हरे कच्च पात
टपकतीं घोर लम्ब जटाएँ-जुट्ट झूमतीं
रिसते बृहद दल-पाठे
पुराण पिता कदली के
दानव कछुओं से लटकते विषकुंभी फल
रोमशी महाफलियाँ
डिम्भक अहिछत्रों के
नीरज्ज जमे हुए कण्टकीय आंत्रपुष्प
लताजाल जैसे तंतुपोले आदिम अरंड
झरती हैं जिनसे गाढ़ी द्राक्षाएँ गुग्गुल सी

अल्प सूक्ष्म नाभि से
निकलते चले आते हैं

अश्रु-पादपों के बरसते वाष्प कान्तार
मांस लुंज नरकुल
आश्लेष भरी वल्लियाँ

गूदेदार भारी वल्क
पनपते हुए छिद्राणु कंदुकीय
पंखपर्ण वाले फर्न
भुर्जवंश वर्मणी
गोंदभरी काही हरीतिका
सघना तल-छादिनी
चिपके हुए भन्नाते भीम-मक्ष
कृष्ण नील पातों को हटाते हुए आते हैं
भुजंग सरीसृप असंख्य
सन्नाते पुच्छ पक्ष वाले प्रथम मीन सरट
चलते हुए टीलों से भयाकार डिनोसार
काले बादलों की तरह अंधियारा फैलाते
उड़ते हुए राक्षसतन
पक्षीसृप इक्थ्योसॉर