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बीज-संवेदन- 9 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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चलते चलते
      जब किसी पड़ोस से
      टकराना होता है
      तो एक गॅूज उठती है
      कभी चूड़ियों की खनक की तरह
      कभी तलवारों की झनक की तरह
      एक में जुड़ाव की ध्वनि होती है
      एक में द्वंद्व की
      ल्ेकिन जब कोई
      अपने आप से टकरा जाता है
      तो वहॉ ऐसा कुछ नहीं होता

      वहाँ चेतना की एक धारा चलती है
      जो खुद को ही नंगा करने को
      मचल उठती है
      वहॉ अपने ही अंधेरे और रोशनी
      सामने होते हैं
      अंधेरे डराते हैं
      और रगों में अपनी गॉठें बुनते है
      रौशनी साक्षात के लिए
      साहस जुटाती है
      उसकी लौ की धारा
      उन गाँठों को भिंगोती है.

      इस क्षण
      मैं अपने ही दीए की लौ लिए
      अपने ही अंधेरे से टकरा रहा हॅू
      और परत दर परत
      नंगा हो रहा हूँ.

      ऐसा नहीं है कि नंगा हेाना
      मुझे अच्छा लगता है
      यह तो एक कड़वा अनुभव है
      पर ऐसा होने में
      प्रत्येक उधड़न
      ओढ़े यथार्थों की कथा सुनाती है
      और मेरा होना
      इन बोधों से निथर कर
      अपने होने के निकट
      सरक जाता है.