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बीज / सपना मांगलिक
Kavita Kosh से
गिरा बीज कोई अनजान
उम्मीदों का उमड़ा तूफ़ान
धरती सीने हुई रोपाई
फसल स्वप्न की लहलहाई
थी सख्त धरा जैसे मरू
काश बनता यह विशाल तरु
रवि ने अपनी तपिश बढ़ाई
धूप भी तंज से खिलखिलाई
है कहाँ नसीब का जल तुझपे मूरख
करेगी कैसे इसकी सिंचाई?
भावों की बहती बूंदों से
सींचा नयनों के मेघों से
सह सूरज की प्रचंड तपन
हर मुश्किल को मैंने किया दफ़न
कर ली उम्मीदों की यूँ सिंचाई
बिखरी सुगंध चिड़िया चहचहाई
मेहनत से जीवन गया संवर
बीज कल का आज बना शजर