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बीते लम्हें / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
वो आकर लगते हैं सीने से
बीते लम्हें
जाएँ तो जाएँ कहाँ
वो आकर रुकते हैं
आँखों के दामन में
बीते लम्हें
अब जाएँ तो जाएँ कहाँ
सिसकियाँ भरते हैं
मेरी आगोश में
वो बीते लम्हें
अनसुलझे से ख़्वाबों में लिपट कर
कुछ इंतजार में हैं अभी भी
कि शायद उन्हें कोई आयाम मिलें
उन्हें कहाँ मालूम
बीत चुका है उनका वक़्त
बस अब बन्दी बने से फिरते हैं
अपनी ख़ुद की दहलीज तक।