बीत गया समय / सविता सिंह
अचानक आँख खुली तो आसमान में लाली थी
अभी-अभी पौ फटी थी
एक ठण्डी हवा देह से लग-लग कर जगा रही थी
मेरा बिस्तर एक नाव था अथाह जल में उतरा हुआ
मैं यहाँ कब और कैसे आई
यह कोई नदी है या समुद्र
सोच नहीं पा रही थी
लहरें दिखती थीं आती हुई
बीच में ग़ायब हो जाती हुई
यह कोई साइबर-स्पेस था शायद
यहाँ सच और सच में फ़र्क इतना ही था
जितना पानी और पानी की याद में
कैसी दहला देने वाली यादें थीं पानी में डूबने की
हर दस दिन में दिखती थीं मैं किस कदर डूबती हुई
यह अद्वितीय परिस्थिति थी
जिसमें मैं अकेली नहीं थी
उसी की तरह मृत्यु मेरे भी साथ थी
कौन जान सकता है
हम दोनों ही सही वक़्त का
इन्तज़ार कर रहे थे
यह नाव को ही पता था उसे कब पलटना था
और किसे जाना था पहले
यह भी ठीक से नहीं पता चला
कब वह इस नाव पर आ गया था
बेछोर आसमान के नीचे
पानी के ऊपर बगल में
मैंने आँखें तब बन्द कर ली थीं
आसमान की हलकी लाली अब तक बची थी
जो मेरे गालों पर उतरने लगी थी
मैं सजने लगी थी
मुझे भी कहीं जाने की तैयारी करनी थी
वह जान गया था
और अफ़सोस में जम-सा गया था
हमारे पास कहने को कुछ नहीं था
कभी-कभी कहने को कुछ नहीं होता
वह समय बीत चुका होता है