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बीत रहे दिन-मास-वर्ष / राजेन्द्र वर्मा

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बीत रहे दिन-मास-वर्ष
बातें सुनते-सुनते ।
बीती जाती उम्र एक
सपना बुनते-बुनते ।।

गाँव-शहर जंगल में बदले,
जंगल मरुथल में
राजसदन क्रीड़ा-केन्द्रों में
बदल गये पल में

आँगन-आँगन उग आये हैं
पेड़ बबूलों के,
फूलों का विस्मरण हुआ
काँटे चुनते-चुनते ।

जिम्मेदारी लुटी
मौज़मस्ती के मेले में
रोटी का सवाल मुँह बाये
खड़ा अकेले में

कुम्हलाया बचपन भी
छप्पन भोग लगा लेता
सो जाता जो परीकथाओं-
को सुनते-सुनते ।

इन्द्रधनुष से ज़्यादा चर्चित
उसके चित्र हुए
इन्द्रसभा के पीछे पागल
विश्वामित्र हुए

कैसे प्राप्त परम पद हो,
बस इसका युद्ध छिड़ा
अभिशापित त्रिशंकु जीता है
सिर धुनते-धुनते ।।