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बीस सौ पचास / शरद रंजन शरद

भर रहा हूँ

देह और धरती के

हर चुल्लू में पानी


नहीं तो आधे

पड़ जाएँगे प्यास के माथे


रख रहा हूँ आग

बचा-बचाकर

हर जली हुई तीली के साथ

क्योंकि प्रकाश की कई पीढ़ियाँ

लेने जा रही है संन्यास


साँसों से चुरा-चुराकर

हवा को रोके रखा है फेफड़ों में

प्राण और वायु का रिश्ता

छूट जाने वाले दिनों के लिए


कंकरीट हो रही सतह को

कुरेद-कुरेदकर

जमा की है मिट्टी

सारे के सारे नाख़ूनों में

कि रेत होने जा रहा है

इस जीवन का सबकुछ


आकाश के कुछ रूमाल

रखने हैं कई-कई साल

जब तलवों को आएगी नींद

चलते-चलते कहीं टिककर

सपने देखने होंगे इन्हीं पर


अरबों पैरों से लग-लगकर

फट रही पृथ्वी की बिवाइयों में

भर रहा हूँ मोम-सा विश्वास

कि देख सके यह दुनिया

सन् बीस सौ पचास !