भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुझता खीरा / सांवर दइया
Kavita Kosh से
केई दिनां पैली तो
हरेक रै हकां खातर
खीरा उछाळतो बीं रो बाको
पण जद सूं सामैं आया है
चीकणा भरवां डील
बो बंद कमरां में बंद हुयग्यो
जकै सूं कानां तांईं नीं पूगै
फालतू लोगां रो हाको !