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बुझ न जाए दीप तू जलाए जा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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बुझ न जाय दीप तू जलये जा।

छा रही हों क्यों न आसमान में घटाएँ घोर
ला रही हों क्यों न अन्धकार विश्व का निचोर
आ रही हों क्यों न ले प्रचंड आँधियाँ हिलोर

रुक न जाय राह तू दिखाये जा।
बुझ न जाय दीप तू जलाये जा॥

फूट क्यों न जायँ óात ही प्रलय की धार के
टूट क्यों न जायँ बंध क्षुब्ध सिंधु-ज्वार के
रूठ क्यों न जायँ तार विश्व की सितार के

रुक न जाय गीत तू सुनाये जा।
बुझ न जाय दीप तू जलाये जा॥

जल रहे हों मार्तण्ड ले प्रचंड अग्नि-ज्वाल
बन रहे हों अग्नि-खंड हिमगिरि के उच्च भाल
शुष्क हो रहे हों वक्ष विश्व-सिन्धु के विशाल

रुक न जाय धार तू बहाये जा।
बुझ न जाय दीप तू जलाये जा॥

गिर पड़ें पहाड़ के पहाड़ बज्र-वृष्टि हो
व्योम टूट गिर पड़े, झुकी समस्त सृष्टि हो
क्यों न काल-नेत्र की कराल क्रुद्ध दृष्टि हो

झुक न जाय सीस, तू उठाये जा।
बुझ न जाय दीप तू जलाये जा॥