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बुद्धचरित / तृतीय सर्ग / भाग-1 / एडविन अर्नाल्ड / शुक्ल

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बसत बुद्ध भगवान् सरस सुखमय थल माहीं
जरा, मरण, दु:ख रोग क्लेश कछु जानत नाहीं।
कबहुँ कबहुँ आभास मात्र इनको सो पावत,
जैसे सुख की नींद कोउ जो सोवत आवत

कबहुँ कबहुँ सो स्वप्न माहिं छानत है सागर,
लहत कूल जगि, भार लादि कछु अपने मन पर।
कबहुँ ऐसो होत रहत सोयो कुमारवर
सिर धारि प्यारी यशोधरा के विमल वक्ष पर,

मृदु कर मंद डुलाय करति सो मुख पै बीजन
उठत चौंकि चिल्लाय 'जगत् मम! हे व्याकुल जन!
जानत हौं, हौं सुनत सबै पहुँच्यौ मैं, भाई?'
मुख पै ताके दिव्य ज्योति तब परति लखाई,

करुणा की मृदु छाया पुनि दरसति तहँ छाई।
अति सशंकदृग यशोधरा पूछै अकुलाई
कौन कष्ट है प्राणनाथ! कछु जात न जानो'।
परै कुँवर उठि, लखै प्रिया को मुख कुम्हिलानो।

ऑंसु सुखावन हेतु तासु पुनि लागै बिहँसन।
वीणा को सुर छेड़न को देवै अनुशासन।
 
धारी रही खिरकी पै वीणा एक उतानी,
परसि प्रभंजन ताहि करत क्रीड़ा मनमानी।
तारन को झननाय निकासत अति अटपट धुनि,
रहे पास जो तिनको केवल परी सोइ सुनि।

किंतु कुँवर सिद्धार्थ सुन्यो देवन को गावत।
तिनके ये सब गीत कान में परे यथावत-
हम हैं वाहि पवन की बानी जो इत उत नित धावै,
हा हा करति विराम हेतु पै कतहुँ विराम न पावै

जैसो पवन गुनौ वैसोई जीवन प्राणिन केरो,
हाहाकार उपासन को है झंझावत घनेरो।
 
आए हौ किहि हेतु कहाँ ते परत न तुम्हैं जनाई,
प्रगटत है यह जीवन कित तें और जात कहँ धाई।
जैसे तुम तैसे हम सबहू जीव शून्य सों आवैं
इन परिवर्तनमय क्लेशन में सुख हम कछू न पावैं।
 
औ परिवर्तन रहित भोग में तुमहूँ को सुख नाहीं।
यदि होती थिर प्रीति कछू सुख कहते हम ता माहीं।
पै जीवनगति और पवनगति एकहीं सी हम पावैं।
हैं सब वस्तु क्षणिक स्वर सम जो तारन सों छिड़ि आवैं।
 
हे मायासुत! छानत घूमैं हम वसुधा यह सारी,
यातें हम इन तारन पै हैं रहे उसास निकारी।
देश देश में केती बाधा विपति विलोकत आवैं।
केते कर मलि मलि पछितावैं, नयनन नीर बहावैं।
 
पै उपहासजनक ही केवल लगै विलाप हमारो।
जीवन को ते अति प्रिय मानैं जो असार है सारो।
यह दु:ख हरिबो मनौ टिकैबो घन तर्जनि दिखराई,
अथवा बहति अपार धार को गहिबो कर फैलाई।
 
पै तुम त्राण हेतु हौ आए, कारज तव नियरानो।
विकल जगत् है जोहत तुमको त्रिविधा ताप में सानो।
भरमत हैं भवचक्र बीच जड़ अंधा जीव ये सारे।
उठौ, उठौ, मायासुत! बनिहै नाहिं बिना उद्धारे।
 
हम हैं वाहि पवन की बानी जो कहूँ थिर नाहीं।
घूमौ तुमहुँ, कुँवर! खोजन हित निज विराम जग माहीं।
छाँड़ौ प्रेमजाल प्रेमिन हित, दु:ख मन में अब लाऔ।
वैभव तजौ, विषाद विलोकौ औ निस्तार बताओ।
 
भरि उसास इन तारन पै हम तव समीप दु:ख रोवैं।
अब लौं तुम नहिं जानत जग में केतो दु:ख सब ढोवैं।
लखि तुमको उपहास करत हम जात, गुनौ चित लाई
धोखे की यह छाया है तुम जामें रहे भुलाई।
 
ता पाछे भइ साँझ, कुँवर बैठयो आसन पर
रस समाज के बीच धारे प्रिय गोपा को कर।
गोधूली की बेला काटन के हित ता छन
लागी दासी एक कहानी कहन पुरातन,

जामें चर्चा प्रेम और उड़ते तुरंग की,
तथा दूर देशन की बातें रंग रंग की,
जहाँ बसत हैं पीत वर्ण के लोग लुगाई,
रजनीमुख लखि सिंधु माहिं रवि रहत समाई।

कहत कुँवर 'हे चित्रो! तू सब कथा सुनाई
फेरि पवन के गीत आज मेरे मन लाई।
देहु, प्रिये! तुम याको मुक्ताहार उतारी।
अहह! परी है एती विस्तृत वसुधा भारी!

ह्नैहैं ऐसे देश जहाँ रवि बूड़त है नित।
ह्नैहैं कोटिन जीव और जैसे हम सब इत।
सुखी न या संसार बीच ह्नैहैं बहुतेरे,
कछु सहाय करि सकैं तिन्हैं यदि पावैं हेरे।

कबहुँ कबहुँ हौं निरखत ही रहि जात प्रभाकर
कढ़ि पूरब सों बढ़त जबै सो स्वर्णमार्ग पर।
सोचौं मैं वे कैसे हैं उदयाचल प्रानी।
प्रथम करैं जो ताके किरनन की अगवानी।

अंक बीच बसि कबहुँ कबहुँ, हे प्रिये! तिहारे
अस्त होत रवि ओर रहौं निरखत मन मारे
अरुण प्रतीची ओर जान हित छटपटात मन,
सोचौं कैसे अस्ताचल के बसनहार जन

ह्नैहैं जग में परे न जाने केते प्रानी
हमें चाहिए प्रेम करन जिनसों हित ठानी।
परति व्यथा मोहिं जानि आज ऐसी कछु भारी
सकत न तव मृदु अधार जाहिं चुंबन सों टारी।

चित्रो! तूने बहु देशन की बात सुनाई,
उड़नहार वे अश्व कहाँ यह देहि बताई।
देहुँ भवन यह, पावौ जो तुरंग सो बाँको
घूमत तापै फिरौ लखौं विस्तार धारा को।

इन गरुड़न को राज कहूँ मोसो है भारी
उड़त फिरत जो सदा गगन में पंख पसारी
मनमानों नित जहाँ चहैं ते घूमैं घामैं।
यदि मेरे हू पंख कहँ वैसे ही जामैं

उड़ि उड़ि छानौं हिमगिरि के वे शिखर उच्चतर,
बसौं जहाँ रविकिरन ललाई लसति तुहिन पर।
बैठो बैठो तहाँ लखौ मैं वसुधा सारी,
अपने चारों ओर दूर लौ दीठि पसारी।

अबलौं क्यों नहिं कढ़यो देश देखन हित सारे?
फाटक बाहर कहाँ कहाँ है परत हमारे?
 
उत्तर दीनो एक 'प्रथम नगरी तव भारी,
ऊँचे मंदिर, बाग और आमन की बारी।
आगे तिनके परैं खेत सुंदर औ समथल,
पुनि नारे, मैदान तथा कोसन के जंगल।

ताके आगे बिंबसार को 'राजकुँवरवर!
है अपार यह धारा बसत जामें कोटिन नर।'
कह्यो कुँवर 'है ठीक! कहौ छंदकहि बुलाई,
लावै रथ सो जोति कालि, देखौ पुर जाई।'