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बुद्धचरित / द्वितीय सर्ग / भाग-1 / एडविन अर्नाल्ड / शुक्ल

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राजा की चिन्ता

वर्ष अठारह पार भए भगवान् बुद्ध जब
तीन भवन बनिबे की आज्ञा नृपति दई तब-
बनै एक तो देवदार सों मढयो भव्य अति
शीतकाल में होय शीत की नहिं जामे गति,

बनै श्वेत मर्मर को दूजो दमकत उज्ज्वल,
ग्रीष्मकाल में बास जोग सुथरो औ शीतल,
लाल ईंट को बनै तीसरो भवन मनोहर,
पावस ऋतु के हेतु खिलैं चंपक जब सुंदर।

तीन हर्म्य ये- शुभ्र, रम्य तीजो सुरम्य पुनि-
राजकुमार निमित्ता भए निर्मित तहँ चुनि चुनि।
तिनके चारों ओर खिले उपवन मन मोहत,
नारे घूमत बहत, बिटप वीरुधा बहु सोहत।

सघन हरियरी माहि लतामंडप बहु छाए।
जिनमें कबहूँ कुँवर जाए बैठत मन भाए।
नव प्रमोद आमोद ताहि बिलमावत छिन छिन,
पाय तरुण वय रहत सदा सुख सों बितवत दिन।

कबहुँ कबहुँ पै छाय जाति चिंता चित माहीं,
मानस जल झ्रवराय पाय ज्यों बादर छाहीं।
देखि लक्षण ये महीपति कह्यो सचिव बुलाय-
'ध्यान है जो कहि गए ऋषि औ गणकगण आय?

प्राण तें प्रिय पुत्र यह जग जीति करिहै साज,
सकल अरिदल दलि कहैहै महाराजधिराज।
नाहिं तौ पुनि भटकिहै तप के कठिन पथ माहिं
खोय सर्वस पायहै सो कहा जानैं नाहिं।

लखत तासु प्रवृत्ति हम या ओर ही अधिकाय
विज्ञ हौ तुम देहु मोकों मंत्र सोइ बताय।
उच्च पथ पग धारै जासों कुँवर सजि सुख जात,
घटैं लक्षण सत्य सब, सो करै भूतल राज।

रह्यो जो अति श्रेष्ठ बोल्यो बचन सीस नवाय
'प्रेम है सो वस्तु जो यह रोग देय छुड़ाय।
कुँवर के या परम भोरे हृदय पै, नरराय!
तियन के छल छंद को चट देहु जाल बिछाय।

रूप को रस कहा जानै अबै कुँवर अजान,
चपल चख चित मथनहारे, अधार सुधा समान।
देहु वाको कामिनी करि चतुर सहचर साथ,
फेरि देखौ रंग अपने कुँवर को, हे नाथ!

लोह सीकड़ सों नहीं जो भाव रोको जाय
कुटिल कामिनि केश सों सो सहज जात बँधाय'।

कह्यो नृप यदि खोजि युवती करैं याको ब्याह,
प्रेम की कछु परख औरै औ निराली चाह।
यदि कहैं हम ताहि 'हे सुत! रूप उपवन जाय
लेहु चुनि सो कली जो सब भाँति तुम्हैं सुहाय'

परम भोरो बिहँसि कै सो बात दैहै टारि
भागिहै आनंद सों जिहि सकत नहिं जिय धारि।

कह्यो दूसरो सचिव 'नृपति यह समुझि लेहु मन,
तौ लौं कूदत है कुरंग जौ लौं शर खात न।
कोउ मोहिहै अवसि ताहि जानौ यह निश्चय
काहू को मुख ताहि स्वर्ग सम लगिहै सुखमय।

रूप उषा सों उज्ज्वल कोऊ लगिहै ताको,
आय जगावति जो प्रतिदिन सारी वसुधा को।
रचौ सात दिन में 'अशोक उत्सव' नृप! भारी
होयँ जहाँ एकत्रा राज्य की सकल कुमारी।

बाँटै कुँवर 'अशोक भांड' सबको प्रसन्न मन
रूप और गुन करतब तिनके निरखै नयनन।
लै लै निज उपहार जान जब जगै कुमारी,
छिपि कै देखत रहै तहाँ कोऊ नर नारी

काके ऊपर कुँवर आपनी दीठि गड़ावै,
काकी चितवन मिले उदासी मुख की जावै।
चुनैं प्रेम के नयन प्रेयसी आपहि जाई।
रसबस करि कै कुँवरहिं हम यों तो सकत भुलाई।'

भली लगी यह बात, युक्ति सब के मन भाई।
तुरत राज्य में नरपति ने डौंड़ी फिरवाई-
'राजभवन में आवैं सुंदरि सकल कुमारी,
है 'अशोक उत्सव' की कीनी नृपति तयारी।
निज कर सों उपहार बाँटिहैं श्रीकुमार कढ़ि
पैहै वस्तु अमोल निकसिहै जो सब सों बढ़ि।'