बुद्धि सेन मंत्री का शान्ति प्रस्ताव / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
बुद्धिसेनगां कुंअर के पासा। करि जो हरि अस्तुति परकासा॥
धन्य सुलग्न लियो अवतारा। धनि जननी धनि पिता तुम्हारा॥
धन्य सो कुल जेहि वंशहिं जाये। धन्य सो नारि जो तुम पति पाये॥
हम महथा राजाकर अहहीं। मंत्र एक हम तुम सन कहहीं॥
जीन दुहु ओर करहु क्षयकारा। कोई न जाही जीति भुआरा॥
विश्राम:-
क्षत्रिय की पति राखेऊ, ओ जमत कुलकी लाज।
जेहि कारण घर छांडेऊ, चेतहु आपन काज॥73॥
चौपाई:-
अब सुन कुँअर जो कहल हमारा। हम मंत्री जस उनहिं तुहारा॥
भावी वश आयउ यहि ठाऊँ। विधिकर लिखा न लागे बाऊँ॥
सेना बहुत भयउ क्षयकारा। दूवो ओर गने को पारा॥
वीर दुवो दिशि शूर समर्था॥
अरुझे देश न भूमि भंडार। जेहि कारन सेना क्षयकारा॥
विश्राम:-
धरनीश्वर किय पूर पछ, वचन करहु परमान।
अब विलम्ब नहि कीजिये, जाहु जहाँ मन मान॥74॥
चौपाई:-
कुंअर समुझि देखा मन माहीं। आगिल काज करे मोहि आही॥
जत दिन मोहि मारगमंह जाई। अवधि मांझसो दिवस खुटाई॥
वचन तुम्हार कियों परमाना। जाहु मंत्रि राजा सनिधाना॥
हम तुम माहि वैर व्यवहारा। यह सब चरित रब्यो कर्तारा॥
यहाँ प्रयोजन मम कछु नाही। काज चले निज मारग जाहीं॥
अपने भवन गवन नृप करही। पाछे हम मारग पगुधरहीं॥
वुद्धिसेन राजापहं आवा। चलिय कटक तब सबहिं सुनावा॥
विश्राम:-
तब चढ़ि कुंअर सुरवासने, मारग चले सुछन्द।
वाजु निशान गहागही, धरनी करत अनंद॥75॥