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बुद्ध के साथ एक शाम / हरिवंशराय बच्चन

रक्तरंजित साँझ के
आकाश का आधार लेकर
एक पत्रविहीन तरु
कंकाल-सा आगे खड़ा है.
टुनगुनी पर नीड़ शायद चील का,
खासा बड़ा है.

एक मोटी डाल पर है
एक भारी चील बैठी
एक छोटी चिड़ी पंजों से दबाए
जो कि रह-रह पंख
घबराहट भरी असमर्थता से
फड़फड़ाती,
छुट न पाती,
चील कटिया सी नुकीली चोंच से
है बार-बार प्रहार करती,
नोचकर पर डाल से नीचे गिराती,
माँस खाती,
मोड़ गर्दन
इस तरफ़ को उस तरफ़ को
देख लेती;
चार कायर काग चारों ओर
मंडलाते हुए हैं शोर करते.
दूर पर कुछ मैं खड़ा हूँ.

किंतु लगता डाल पर मैं ही पड़ा हूँ;
एक भीषण गरुड़ पक्षी
मांस मेरे वक्ष का चुन-चुन
निगलता जा रहा है;
और कोई कुछ नहीं कर पा रहा है.

अर्थ इसका,मर्म इसका
जब न कुछ भी समझ पड़ता
बुद्ध को ला खड़ा करता--
दृश्य ऐसा देखते होते अगर वे
सोचते क्या,
कल्पना करते ? न करते ?
चील-चिडियाँ के लिए,
मेरे लिए भी किस तरह के
भाव उनके हिये उठते ?

शुद्ध,
सुस्थिरप्रग्य,बुद्ध प्रबुद्ध ने
दिन-भर विभुक्षित चील को
सम्वेदना दी,
तृप्ति पर संतोष,
उनके नेत्र से झलका,
उसी के साथ
चिड़िया के लिए संवेदना के
अश्रु ढलके,
आ खड़े मेरे बगल में हुए चल के,
प्राण-तन-मन हुए हल्के,
हाथ कंधे पे धरा,
ले गए तरु के तले,
जैसे बे चले ही पाँव मेरे चले ?
नीचे तर्जनी की,
बहुत से छोटे-बड़े,रंगीन,
कोमल-करूण-बिखरे-से
परों से,
धरनि की धड़कन रुकी-सी ह्रत्पटी पर,
प्रकृति की अनपढ़ी लिपि में,
एक कविता सी लिखी थी !