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बुद्ध को क्या पता था / लाल्टू

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1

("कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”)

बहते हैं और नहीं बहते हैं
कि कोई आकर थाम ले इन आँसुओं को
रोना नहीं है रोना नहीं है कह ले

कहीं तो जाने का मन करता है
कहाँ जाऊँ

महानगर में सड़क किनारे बैठा हूँ
देखता हूँ एक ऊँट है चल रहा धीरे-धीरे
उसकी कूबड़ के साथ बिछावन के रंगों को देखता हूँ
उस पर बैठे लड़के को देखता हूँ

है, उम्मीद है, अनजाने ही उसे कहता हूँ
कि सारे तारे आस्माँ से ग़ायब नहीं होंगे
अन्धेरे को चीरता टिमटिमाएगा आख़िरी नक्षत्र
रचता रहेगा कविता गीत गाता रहेगा

उठता हूँ
कोई पूछता है
कि कब तक उम्मीदों का भार सँभालोगे
फिलहाल इतना ही निजी इतना ही राजनैतिक
चलता हूँ राजपथ पर।

सोचते रहो कि एक दिन सब चाहतें ख़त्म हो जाएँगीं
नहीं होंगी
ऐसे ही तड़पते रहोगे हमेशा
दूर से वायलिन की आवाज़ आएगी
पलकें उठकर फिर नीचे आ जाएँगीं
कोई नहीं होगा उस दिशा में
जहाँ कोई तड़प बुलाती-सी लगती है

देह ख़त्म भी हो जाे
तो क्या
हवा बहेगी तो उड़ेगी खाक जिसमें तुम रहोगे
हवा की साँय-साँय से दरों-दीवारों की खरोंचों में
तुम जिओगे ऐसे ही रोते हुए
बुद्ध को क्या पता था कि ख़त्म होने के बाद क्या होता है
तुम जानोगे
जब रोओगे उन सबके लिए
जिन्हें भरपूर प्यार नहीं कर पाए।

2

मारते रहो मुझे बार-बार
मैं और नहीं कहूँगा तुम्हारे बारे में
मुझे कहना है अपने बारे में
मैं प्यार में डूबा हूँ
अपने अवसाद अपने उल्लास में डूबा हूँ

मार दो मुझे कि मैं तुम्हारे खिलाफ़ कभी न कह सकूँ
सिर्फ़ इस वजह से मैं रोऊँगा नहीं
नहीं गरजूँगा
नहीं तड़पूँगा
रोने को मुहब्बत हैं कम नहीं ज़माने में
ग़मों के लिए मैं नहीं रोऊँगा।