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बुलबुल सुने न क्यूँके कफस में चमन की बात / क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

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बुलबुल सुने न क्यूँके कफस में चमन की बात
आवार-ए-वतन को लगे खुश वतन की बात

ऐश ओ तरब का जिक्र करूँ क्या मैं दोस्तो
मुझ गम-ज़दा से पूछिए रंज ओ महन की बात

शायद उसी का जिक्र हो हर रह-गुजर में मैं
सुनता हूँ गोश-ए-दिल से हर इक मर्द ओ जन की बात

‘जुरअत’ ख़िजाँ के आते चमन में रहा न कुछ
इक रह गई जबाँ पे गुल ओ यासमन की बात