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बूँद और मैं / नूपुर अशोक
Kavita Kosh से
पानी की एक बूँद
मेरी खुली हथेली पर आ पहुँची
शायद आसमान से आयी
ज़िंदगी से भरी एक बूँद
चाहूँ तो पी लूँ,
चाहूँ तो गीला कर लूँ
अपना सूखा चेहरा।
या धीरे से लुढ़का दूँ
नीचे ज़मीन पर,
इस बूँद को जो है
मेरी खुली हथेली पर
या यहीं रहने दूँ इसे
यहीं धूप के तले
और कहूँ कि जा
उड़ जा आसमान में
पर इतना भी ऊँचा मत जाना
कि तुम्हें देख ही न पाऊँ।
जाकर बादल पर रुक जाना
जब दिल चाहे बरस जाना।
ऊँचाइयों पर जाना
पर इतना भी ऊँचा मत जाना
कि ज़मीन से रिश्ता ही ख़त्म हो जाये।