भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बूँद बन-बन के बिखरता जाए / शीन काफ़ निज़ाम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बूँद बन-बन के बिखरता जाए
अक्स आईने को भरता जाए

बन के कल-कल जो गुज़रता जाए
अपने वादे से मुकरता जाए

एक ही लय में बहे जाता है
और लगता है ठहरता जाए

शहर सागर का भी हमज़ाद<ref>एक से स्वभाव</ref> कहाँ
मौज दर मौज बिफरता जाए

अक्स माकूस<ref>प्रतिबिंब</ref> हुआ है जब से
अपनी नज़रों से उतरता जाए

एक नदी है कि रुकती ही नहीं
एक तूफ़ान उतरता जाए

एक कोंपल में सिमटने के लिए
पेड़ का पेड़ बिखरता जाए

शब्दार्थ
<references/>