बूढ़ा तालाब / नरेश मेहन
तुम्हारी नजरों में
आजकल मैं
एक नकारा, गंदला
बूढ़ा तालाब हूँ।
परन्तु दोस्तो
कुछ पल ठहरों
अपनी सोच को
विराम जरा दो
और झांको
अतीत में
देखो मेरी ओर
मैं वही तालाब हूँ
जिसका जल कभी
नगर की हवेलिया मे
मेरा ही गारा
ईटे जोड़ता था।
यह जो भीमकाय गढ़ है
इसके गुम्बद
मेरे ही जल के बल से
गगन चूम रहे हैं
तुम्हारें शहर के बूढ़े रूंख
मेरे ही दम पर
आज तक झूल रहे हैं।
उधर देखो
वह बूढ़ा बरगद
मेरे सौंदर्य की कहानी
हवा को सुना रहा है
अपने भीतर संजोये
इतिहास को गुनगुना रहा है।
सदियों से
अपनी जटाओं की अंगुलियों में
मुझे थमा कर
मेरे बदन पर पसरा कर
इस कदर मौन खड़ा है
इसके भीतर
जमाने भर का दर्द पड़ा है
क्या तुमने कभी
उसे पढ़ा है।
मेरे बदन से सटे
अनधड़ से दिखने वाले
यह पत्थर
सदा ऐसे काले नहीं थे
संगममरी काया रखते थे।
इन्ही पनघटों पर
गूंजती थी कभी
पायलों की झनकार
यहीं, ठीक यहीं
मचल जाया करते थे नंदलाल
पा कर पनिहारियों की मुनहार।
मेरा जल कभी
हुआ करता था निर्मल
जिसमें खिलते थे हंस
तब कहां था
आज सा घ्वंस?
मेरी काया पर
जब कभी
पूर्णिमा का चांद उतरता था
निहारता था मुझे
तब दूर बैठा
स्वर्ग का देवता
दाह मे तड़फता था
और तुम्हारे इस नगर के
युवा मन
मेरे जल से अठखेलियां करते
रात को अलविदा करते थे।
बूढ़ा तालाब तड़फा
यह अनायास
क्या हो गया नगर को
अपने दिन भर के
गंदियाये बदन का मैल
और सड़ांघते मल को
मेरे जल में मिलाने लगा है
अपने कुकृत्यों से
मेरी आभा मिटाने लगा है
रोक लो अपने नगर को
वह कितना अंधा हैं
वह नहीं जानता
मेरे नाश में ही
उसका विनाश बंध है।
मैं बूढ़ा निढाल
आदम स्पर्श चाहता हूँ
मैं भी तुम्हारी तरह
मनोरम काया चाहता हूँ
मैं नहीं चाहता
नगर का विनाश
नगर क्यों चाहता है
मेरा नाश?
मैंने बहुत सहेजा है
तुम्हारें बुजुर्गो के बदन को
अब तुम भी करो
थोड़ा सा यतन
मेरे पनघट के पत्थरों को
थोड़ा सा करो स्पर्श।