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बूढ़ा बरगद / जया पाठक श्रीनिवासन

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यह पूरा गाँव
इस बूढ़े बरगद पर बसा है
हजारों साल पहले
इस बरगद की जड़ों के आस पास
पत्थर का चबूतरा नहीं था
इसकी जड़ें तब आज़ाद थीं
तब यह बरगद झूमता था
अपनी बाहों में हज़ारों रंगीन कोंपलें भरकर
और उसके असीम आकाश जैसे तने को
सुहागिनें बाँध देतीं दुआओं की डोर से
सिन्दूर-रोली से सराबोर उसकी छाती तब
और हरिया जाती
 
रोज़ शाम
उसकी जड़ों के इर्द गिर्द
दीयों की एक टोली बैठती
और गाती इश्क से भरी रंगीन कव्वालियाँ
तब उसकी डालियाँ आकाश की ओर ऊपर उठ जातीं
और वह तैरने लगता
किसी दरवेश की तरह
अलौकिक प्रेम के नशे में
 
आज यह बूढ़ा बरगद
खड़ा है
खारे समुद्र के किनारे
उसकी उन्मुक्त जड़ों को
ज़िंदा ही चुनवा दिया गया था
चट्टानों पर लिखी विधि संहिताओं के बीच
 
समुद्र का खारापन नंगा करता है
पत्थरों के बीच फँसी जड़ों को
वह बरगद ज़मीन में गहरे धंसने की कोशिश में
और उथला होता जाता है
वह आज इस मैनग्रोव का
शरणार्थी है
 
समुन्दर और नमकीन होता जा रहा है
गलती जा रही हैं बरगद की जडें
एक दिन उसकी जड़ों पर पड़े पत्थरों के आलेख
सरक जायेंगे
धब्ब से गिर पड़ेगा यह सारा गाँव
समुन्दर के खारेपन में