भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूढ़ा बरगद / विश्वासी एक्का
Kavita Kosh से
सूखे पत्तों को बुहारते हुए
दुख जाती थी कमर
पके फलों के टपकने से
पट जाता था खलिहान ।
अब न घनी छाँव है
न ठण्डी हवा
आज उसके न होने से
कितना उदास है
पूरा गाँव ...।