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बूढ़े परिन्दे / स्वप्निल श्रीवास्तव

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वे विदेश में बसे हुए अपने लड़कों के
ओहदों का ज़िक्र बड़ी शान से
करते हैं,
उनके पैकेज की रक़म बताते हुए
गर्व से भर जाते हैं ।

वे यह नही बताते कि उनसे मिले हुए
दस वर्ष से ऊपर का समय हो गया है ।

जब वे बीमार पड़ते है तो अपने आने
की जगह कुछ डॉलर उनके खाते में जमा
कर देते हैं ।

अपने घोंसले से दूर दूसरे मुल्क़
के आकाश में उड़ रहे लड़के
अपने जन्मदाताओं से बहुत दूर
जा चुके हैं ।

माता-पिता अपने दुख-दर्द, लोगों से बहुत
ख़ूबसूरती से छिपा ले जाते हैं,
लेकिन चेहरे पर जो तकलीफ़ उभरती है
उसे छुपा पाना मुश्किल हो जाता है ।

ये होनहार लड़के सीमान्त पारकर
नए तिलिस्म में दाख़िल हो चुके हैं,
और आराम से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
की ग़ुलामी कर रहे है ।

वे अन्तिम समय मे उनके पास
पहुँच सकेंगे, इसकी सम्भावना बेहद
कम है ।

वे मुल्क़ के किसी शहर या क़स्बे में
अपने जीवन के अन्तिम दिन गिन
रहे हैं ।

मैंने इन बूढ़े परिन्दों को अकेले में
तड़पते हुए देखा है,
वे अपनी मृत्यु की तारीख़ को
याद करते हुए डरे रहते हैं ।