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बृथा क्यौं मानव-जनम गँवावै / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग आसावरी-तीन ताल)

बृथा क्यौं मानव-जनम गँवावै?
क्यौं इंद्रिय-भोगनि में फ़ँसि नित दुःख-‌अगिनि में तावै?
यह भव-तरन सरीर सुदुरलभ, हरि-सुमिरनके हेतु।
मिल्यौ परम प्रभु-कृपा, सहज अति भव-सागर कौ सेतु॥
भजन छाडि बिषयनि सेवन सौं होत सेतु यह भंग।
खात चपेटै बीतत फिर भव-निधि की बिषम तरंग॥
बिफल होय नर-देह, मिलत नहिं प्रेम, नहीं भगवान।
सोक-‌असांति, नरक की पीड़ा मिलत महादुख-खान॥
भोग त्यागि करि बिष-समान, तजि ममता-राग-गुमान।
छिन-छिन तन-मन-धन सौं केवल करौ भजन निर्मान॥
मानव-जनम सफल या बिधि-सौं करि, जो जनम बितावै।
भगवत्‌‌-भगवत्प्रेम पा‌इ, सो‌ई असली सुख पावै॥