बेक़रारी / सिया सचदेव
नींद आँखों से छिन गयी मेरी
पलकें बोझल अजब सी बेचैनी
कौन है, किसका इंतजार मुझे
रात दिन बेक़रार करता है
मेरी आँखों से आज रह रहके
बनके आंसू जो बरसता है
राह जिसकी निगाह तकती है
एक झलक काश वो दिखा जाये
जाने वो रूठकर कहा है छिपा
चाँद जैसे छिपा हो बादल में
फिर भी महसूस यही होता है
हो मेरे आसपास वो जैसे
कुछ तो ऐसा था उसकी निस्बत में
जो मुझे बेकरार करता है
वर्ना होकर किसी से दूर कोई
न किसी की यूँ राह तकता है
जाने वो कौन सी कशिश है जो
मुझको हर वक़्त याद आती है
उसके क़दमो की हरेक आहट से
रूह रह रह के चौंक जाती है
कोई तो आरजू थी सीने में
जो दबे पाँव चली आई है
कोई दस्तक न कोई आहट है
बनके एक याद दिल पे छाई है
एक अनदेखा एक अंजाना
जाने किसका ख्याल आया है
एक अधूरा सा ख्वाब जो जैसे
मैंने आँखों में जो सजाया है
मन को है किसकी आरजू-ए-तलाश
ख्वाब को कब मेरे परवाज़ मिले
है मेरी सिर्फ दुआ इतनी 'सिया'
काश उसको मेरी आवाज़ मिले